Book Title: Muhurtraj
Author(s): Jayprabhvijay
Publisher: Rajendra Pravachan Karyalay Khudala

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Page 491
________________ ४२२ ] [ मुहूर्तराज दीक्षा प्रतिष्ठा शुद्धि : ___ उपाध्याय समयसुन्दर ने 'दीक्षा प्रतिष्ठा शुद्धि' नामक ज्योतिष विषयक ग्रंथ की वि. सं. १६८५ में रचना की है। यह ग्रन्थ १२ अध्यायों में विभाजित है। १. ग्रहगोचर शुद्धि, २. वर्ष शुद्धि, ३. अयन शुद्धि, ४. मास शुद्धि, ५. पक्ष शुद्धि, ६. दिन शुद्धि, ७. वार शुद्धि, ८. नक्षत्र शुद्धि, ९. योग शुद्धि, १०. करण शुद्धि, ११. लग्न शुद्धि, १२. ग्रह शुद्धि। ___ कर्ता ने प्रशस्ति में कहा है कि वि. सं. १६८५ में लुणकरणसर में प्रशिष्य वाचक जयकीर्ति, जो ज्योतिष शास्त्र में विलक्षण की सहायता से इस ग्रन्थ की रचना की। प्रशस्ति इस प्रकार है: दीन प्रतिष्ठाया या शुद्धि सा निगदिता हिताय नृणाम् । श्री लुणकरणसरसि स्मरशर वसु षडुडुपति (१६८५) वर्षे ॥१॥ ज्योतिषशास्त्रविचक्षणवाचकजयकीर्तिसहायैः । समयसुन्दरोपाध्यायसंदर्भितो ग्रन्थः ॥२॥ विवाह रत्न : खरतरगच्छीय आचार्य जिनोदयसूरि ने 'विवाह रत्न' नामक ग्रन्थ की रचना की है। इस ग्रन्थ में १५० श्लोक हैं, १३ पत्रों की प्रति जैसलमेर में वि. सं. १८३३ में लिखी गई है। ज्योति प्रकाश : ___ आचार्य ज्ञानभूषण ने 'ज्योति प्रकाश' नामक ग्रन्थ की रचना वि.सं. १७५५ के बाद कभी की है। यह ग्रन्थ सात प्रकरणों में विभक्त है। १. तिथि द्वार, २. वार, ३. तिथि घटिका, ४. नक्षत्र साधन, ५. नक्षत्र घटिका, ६. इस प्रकरण का पत्रांक ४४ नष्ट होने से स्पष्ट नहीं है, ७. इस प्रकरण के अ 'इति चतुर्दश, पंचदश, सप्तदश, रूपैश्चतुर्भिार (सम्पूर्णोऽथं ज्योति प्रकाश) ऐसा उल्लेख है। ___ सात प्रकरण पूर्ण होने के पश्चात ग्रन्थ की समाप्ति का सूचक है। परन्तु प्रशस्ति के कुछ पद्य अपूर्ण रह जाते हैं। ग्रन्थ में ‘चन्द्रप्रज्ञप्ति' 'ज्योतिष्करण्डक' की मलयगिरी टीका आदि के उल्लेख के साथ एक जगह विनयविजय के 'लोक प्रकाश' का भी उल्लेख है। अत: इसकी रचना वि. सं. १७३० के बाद ही सिद्ध होती है। १. इसकी एकमात्र प्रति बीकानेर के खरतरगच्छ के आचार्य शाखा के उपाश्रय स्थित ज्ञान भण्डार में है। इसकी हस्तलिखित प्रति मोतीचन्द खजान्ची के संग्रह में है। इसकी हस्तलिखित प्रति देहली के धर्मपुरा के मन्दिर में संग्रहित है। द्वितीय प्रकाश में वि. सं. १७२५, १७३०, १७३३, १७४०, १७४५, १७५०, १७५५ के भी उल्लेख है। इसके अनुसार वि. सं. १७५५ के बाद में इसकी रचना सम्भव है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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