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मुहूर्तराज ]
[४२५ इस पर पुर्णिमागच्छ के भावरत्न (भावप्रभसूरि) ने सन् १७१२ में सुबोधिनी वृत्ति रची है। यह अभी तक अप्रकाशित है। महादेवी सारणी टीका : ___महादेव नामक विद्वान ने 'महादेवी सारणी' नामक ग्रह साधन विषयक ग्रन्थ की शक सं. १२३८ (वि.सं. १३७३) में रचना की है। कर्ता ने लिखा है:
चक्रेश्वरारब्धनभश्वराशुसिद्धिं महादेव ऋषींश्च नत्वा । ___ इससे अनुमान होता है कि चक्रेश्वर नामक ज्योतिषी के आरम्भ किये हुए इस अपूर्ण ग्रन्थ को महादेव ने पूर्ण किया। महादेव पद्मनाम ब्राह्मण के पुत्र थे। वे गोदावरी तट के निकट रासिण गाँव के निवासी थे। परन्तु उनके पूर्वजों का मूल स्थान गुजरात स्थित सूरत का प्रदेश था।
इस ग्रन्थ में लगभग ४३ पद्य है। उनमें केवल मध्यम और स्पष्ट ग्रहों का साधन है। क्षेपक, मध्यम, मेष संक्रातिकालीन है और अर्हगण द्वारा मध्यम ग्रह साधन करने के लिये सारणियाँ बनाई हैं।
इस ग्रन्थ पर अंचलगच्छीय मुनि भोजराज के शिष्य धनराज ने दीपिका टीका की रचना वि. सं. १६९२ में पद्मावति पतन में की है।' टीका में सिरोही का देशान्तर साधन किया है। टीका का प्रमाण १५०० श्लोक है। 'जिनरत्नकोष' के अनुसार मुनि भुवनराज ने इस पर टिप्पण लिखा है। मुनि तत्वसुन्दर ने इस ग्रन्थ पर विवृत्ति रची है। किसी अज्ञात विद्वान ने भी इस पर टीका लिखी है। विवाह पटल बालावबोध :
अज्ञातकर्तृक 'विवाह पटल' पर नागोरी तपागच्छीय आचार्य हषकीर्तिसूरि ने 'बालावबोध' नाम से टीका रची है।
आचार्य सौमसुन्दरसूरि के शिष्य अमरमुनि ने 'विवाहपटल' पर 'बोध' नाम से टीका रची है। मुनि विद्यहेम ने वि. सं. १८७३ में विवाह पटल' पर 'अर्थ' नाम से टीका रची है। ग्रह लाघव टीका :
गणेश नामक विद्वान ने 'ग्रह लाघव' की रचना की है। वे बहुत बड़े ज्योतिषी थे। उनके पिता का नाम था केशव और माता का नाम था लक्ष्मी। वे समुद्रतटवर्ती नांदगांव के निवासी थे। सोलहवीं शती के उत्तरार्द्ध में वे विद्यमान थे।
ग्रह लाघव की विशेषता यह है कि इसमें ज्योतिष का सम्बन्ध बिलकुल नहीं रखा गया है। तथापि स्पष्ट सूर्य लाने में करण ग्रन्थों से भी यह बहुत सूक्ष्म है। यह ग्रन्थ निम्नलिखित १४ अधिकारों में विभक्त हैं:- १. मध्यमाधिकार, २. स्पष्टाधिकार, ३. पंचताराधिकार, ४. त्रिप्रश्न, ५. चन्द्र ग्रहण, ६. सूर्यग्रहण, ७. मासग्रहण, ८. स्थूलग्रह साधन, ९. उदयास्त, १०. छाया, ११. नक्षत्र छाया, १२. अंगोत्रति, १३. ग्रह यूति और, १४. महापात। सब मिलाकर इसमें १८७ श्लोक हैं।
इस 'ग्रहलाघव' ग्रन्थ पर चारित्रसागर के शिष्य कल्याणसागर के शिष्य यशस्वतसागर (जसवंतसागर) ने वि. सं. १७६० में टीका रची है।
१.
इस टीका की प्रति लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर, अहमदाबाद के संग्रह में है।
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