Book Title: Muhurtraj
Author(s): Jayprabhvijay
Publisher: Rajendra Pravachan Karyalay Khudala

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Page 493
________________ ४२४ ] [ मुहूर्तराज इसका अभिप्राय यह है कि जिस मनुष्य के जन्म कालीन सूर्य के समान सूर्य होता है। अर्थात् जब उसकी आयु का कोई भी सौर वर्ष समाप्त होकर दूसरा सौर वर्ष लगता है, उस समय के लग्न और ग्रह स्थिति द्वारा मनुष्य को उस वर्ष में होने वाले सुख-दुःख का निर्णय जिस पद्धति द्वारा किया जाता है, उसे 'ताजिक' कहते हैं। उपर्युक्त व्याख्या से यह भी भलीभांति मालूम हो जाता है कि यह ताजिक शाखा मुसलमानों से आई है। शक सं. १२०० के बाद इस देश में मुसलमानी राज्य होने पर हमारे यहाँ ताजिक शाखा का प्रचलन हुआ। इसका अर्थ केवल इतना ही है कि वर्ष। प्रवेशकालिन लग्न द्वारा फलादेश कहने की कल्पना और कुछ पारिभाषिक नाम यवनों से लिये गये। जन्म कुण्डली और उसके फल के नियम ताजिक में प्राय: जातक सदृश है। और वे हमारे ही हैं, यानी इस भारत देश के ही हैं। हरीभट्ट नामक विद्वान ने 'ताजिकसार' नामक ग्रन्थ की रचना वि. सं. १५८० के आसपास में की है। हीरभट्ट को हरीभद्र नाम से भी पहिचाना जाता है। इस ग्रन्थ पर अंचलगच्छीय मुनि सुमतिहर्ष ने वि. सं. १६७७ में विष्णुदास राजा के राज्यकाल में टीका लिखी है।' करण कुतुहल टीका: ___ ज्योर्तिगणित भास्कराचार्य ने 'करण कुतुहल' की रचना वि. सं. १२४० के आसपास में की है। उनका यह ग्रन्थ करण विषयक है। इसमें मध्यमग्रह साधन अहर्गण द्वारा किया गया है। ग्रन्थ में निम्नोक्त १० अधिकार हैं:- १. मध्यम, २. स्पष्ट, ३. त्रिप्रश्न, ४. चन्द्रग्रहण, ५. सूर्यग्रहण, ६. उदयास्त, ७. शृंगोन्नति, ८. ग्रहयूति, ९. पात, १०. ग्रहणसम्भव कुल मिलाकर १३९ पद्य है। इस पर सौढल नार्मदात्मक पद्मनाभ, शंकर कवि आदि की टीकाएं हैं। इस 'करण कुतुहल' पर अंचलगच्छीय हर्षरत्न मुनि के शिष्य सुमतिहर्ष मुनि ने वि. सं. १६७८ में हेमाद्रि के राज्य में 'गणककोमुद कौमुदी' नामक टीका रची है। इसमें इन्होंने लिखा है करण कुतुहल वृतावेतस्या सुमतिहर्षरचितायाम् । गणककुमुदकौमुद्यां विवृता स्फुटता हि खेटानाम् ॥ इस टीका का ग्रन्थान १८५० श्लोक है। ज्योतिर्विदाभरण टीका : ___ 'ज्योतिर्विदाभरण' नामक ज्योतिष शास्त्र का ग्रन्थ 'रघुवंश' आदि काव्यों की कर्ता कवि कालिदास की रचना की है। ऐसा ग्रन्थ में लिखा है। परन्तु यह कथन ठीक नहीं है। इसमें ऐन्द्र योग का तृतीय अंश व्यतीत होने पर सूर्य चन्द्रमा का क्रान्तिसाम्य बताया गया है। इससे इसका रचनाकाल शक सं. ११६४ वि. सं. १२९९ निश्चित होता है। अत: रघुवंशादि काव्यों के निर्माता कालिदास इस ग्रन्थ के कर्ता नहीं हो सकते। ये कोई दूसरे ही कालिदास होने चाहिये। एक विद्वान ने तो यह ‘ज्योतिर्विदाभरण' ग्रन्थ १६ वीं शताब्दी का होने का निर्णय किया है। यह ग्रन्थ मुहूर्त विषयक है। १. २. यह टीका ग्रन्थ मूल के साथ बैंकटेश्वर प्रेस बम्बई से प्रकाशित हुआ है। लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर अहमदाबाद के संग्रह में इसकी १९ पत्रों की प्रति है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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