Book Title: Muhurtraj
Author(s): Jayprabhvijay
Publisher: Rajendra Pravachan Karyalay Khudala

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Page 496
________________ मुहूर्तराज ] [४२७ पूंजीपति व्यक्ति अकुलीन हो तो भी कुलीन, निर्बल हो तो सबल, मूर्ख हो तो जानकार और भीरु हो तो निर्भीक माना जाता है। यह उसके पास के धन का महत्व है। और इसीसे वह संसार में सुखोपभोगी, आमोद-प्रमोदी बना रहता है। परन्तु उसके लिये इससे दुर्गति द्वार बन्द नहीं होता और न उसकी श्रीमन्ताई वहाँ सहायक होती है। वस्तुतः धनवन्त बनने की सार्थकता तब ही होती है जब वह अपने गरीब स्वधर्मी बन्धुओं की एवं दीन, हीन, दु:खी प्राणियों की और दुःख-दर्द-पीड़ित जीवों की हृदय से सेवा करे तथा छात्रालय, ज्ञानालय, धर्मालय आदि की सुव्यवस्था करे। पुन्यवृद्धि और अच्छी गति की प्राप्ति इन्हीं सुकृत कार्यों से होती है। -श्री राजेन्द्रसूरि जिस प्रकार आधा भरा हुआ घड़ा झलकता है, भरा हुआ नहीं; कांसी की थाली रणकार शब्द करती है, स्वर्ण की नहीं और गदहा भूकता है, घोड़ा नहीं; इसी प्रकार दुष्ट-स्वभावी दुर्जन लोग थोड़ा भी गुण पाकर ऐंठने लगते हैं और वे अपनी स्वल्प बुद्धि के कारण सारी जनता को मूर्ख समझने लगते हैं। सज्जन पुरुष होते हैं, वे सद्गुण पूर्ण होकर के भी अंशमात्र ऐंठते नहीं और न अपने गुण को ही अपने मुख से जाहिर करते हैं। जैसे सुगंधी वस्तु की सुवास छिपी नहीं रहती, वैसे ही उनके गुण अपने आप चमक उठते है। इसलिए दुर्जनभाव को छोड़कर सज्जनता के गुण अपनाने की कोशिश करना चाहिये, तभी आत्म-कल्याण होगा। -श्री राजेन्द्रसूरि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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