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मुहूर्तराज ]
[२७३
४०५६) २८८०००० (७१० घ. = क.
२८३९२ ४०८० ४०५६
२४०
X६० ४०५६) १४४०० ( ३ प. = वि.
१२१६८
१२३२ शेष अतः चन्द्रगति ७१०/३ हुई। लग्नसाधन
इस प्रकार इष्टघटीपलों के आधार पर सूर्यादि ग्रहों का स्पष्टीकरण हुआ। अब लग्नसाधन लिखा जा रहा है।
लग्न से तात्पर्य यह है कि जिस इष्ट घटी पलों पर हम किसी कार्य का आरम्भ कर रहे हैं उस समय पूर्व क्षितिज में किस नक्षत्र विशेष की तत्सम्बद्ध राशि अंश कला विकलात्मक स्थिति भी अर्थात् किस राशि के लग्न का उदय था।
लग्न साधनार्थ सर्वप्रथम सूर्य स्पष्ट राश्यादि लिखकर अयनांश साधन करना पड़ता है अयनांश साधनविधि यह हैअयनांश साधनविधि
इष्ट शक संख्या में ४४५ को घटाकर शेष में ६० का भाग देने पर अंशकलात्मक अयनांश आते हैं। चूँकि सं. १९६० में अयनांश २३ अंश थे ततः प्रतिवर्ष १-१ कला की वृद्धि से अयनांश बढ़ रहे हैं। १ वर्ष में १ कला बड़े तो १ राशि में - कला = ५ विकलाएँ बढ़ी और प्रति ६ अंशभागों में १ विकला। अतः अयनांशों की विकला बनाने के लिये राशि X ५ और अंश ६ करने पड़ते हैं। यथा
हमारा स्पष्ट सूर्य ३/१५/२/३३ है और विक्रम वर्ष २०३९ में शकाब्द १९०४ है तो उक्त विधि से १९०४-४४५ = १४५९ : ६० = २४ अं. शेष १९ कलाएं हुईं और विकलाएँ = सूर्य राशि ३ ४ ५ = १५ तथा अंश १५ ’ ६ = २ अर्थात् १५ + २ = १७ विकलाएँ अतः २४ अंश १९ क. १७ वि. यह अयनांश हुए। सायनाकै एवं उसके भोग्यांश
इन्हीं अयनांशों को सूर्य स्पष्ट ३/१५/२/३३ में जोड़ने पर (३/१५/२/३३) + (०/२४/१९/१७) = ४/९/२१/५० यह सायनार्क हुआ इस सायनार्क के भुक्तांशादि ९/२१/५० हैं अतः भोग्यांश रहे (३०/०/०)-(९/२१/५०) = २०/३८/१० अर्थात् सायनार्क की सिंह राशि समाप्त होने तक २० अं. ३८ क. एवं १० विकलाएँ शेष हैं।
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