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[ मुहूर्तराज (झ) मृगेन्द्रयोग- प्रयाणे सर्वार्थसाधक (बृहज्यौतिषसार)
लग्ने शुक्रे शशी बन्धौ कर्मस्थाने गुरुर्यदा ।
मृगेन्द्रयोगो विख्यातो यातुः सर्वार्थ साधक ॥ ___ अर्थ - यदि लग्न में शुक्र, चतुर्थ में चन्द्रमा, तथा दशमभाव में गुरु हो तो मृगेन्द्र नामक योग होता है। इसमें यात्रा करने वाले को सर्वार्थ सिद्धि प्राप्त होती है। () योग-अधियोग-योगाधियोग-- प्रयाणे प्रशस्त (बृहज्यौतिषसार)
एको ज्ञेज्यसितेषु पञ्चमतपः केन्द्रेषु योगस्तथा । द्वौ चेत्तेष्वधियोग एषु सकलाः योगाधियोगुः स्मृतः । योगे क्षेममथाधियोगगमने क्षेमं रिपूणां वधम् , चाथो क्षेमयशोऽवनीश्च लभते योगाधियोगे वजन् ॥
अर्थ - बुध गुरु और शुक्र इनमें से कोई एक यदि १, ४, ७, १०, ९, ५ में ही तो योग कोई दो ग्रह (उपर्युक्त ग्रहों में से) हो तो अभियोग और ऊपर लिखे तीनों हों तो योगाधियोग बनता है।
योग में यात्रा करने से कुशल, अधियोग में कुशल और शत्रुनाश एवं योगाधियोग में यात्रा करने से कुशल यश, तथा भूमि की प्राप्ति होती है। सूर्यादिवारों के विषय में विशेषज्ञातव्य- (बृहज्यौतिषसार)
रवि आदि वारों का व्यवहार दो प्रकार से है। एक तो सूतक (जानक या मृतक का) आदि में अहोरात्र (दिन+रात्रि) की गणना के लिए सूर्योदय से एवं तिथि नक्षत्र आदि की घटी, दिनमान घटी भी सूर्योदय से। किन्तु विवाह-यात्रा दि कृत्यों में विहित और निषिद्ध वार जो कि व्यवहार का दूसरा प्रकार है वह सूर्योदय से ही प्रवृत्त न होकर कभी सूर्योदय से पूर्व और कभी उसके पश्चात् से भी प्रवृत्त होता है, क्योंकि सृष्टि के आरम्भ में जहाँ सूर्योदय हुआ था उसी स्थान के सूर्योदय काल में सर्वत्र वार का प्रवेश और अन्त होता है जिसका मान मध्यम सावन ६० घटी है। इष्टस्थान में वार प्रवृत्ति जानना___ मध्यरेखा (लंका-उज्जयिनी-कुरुक्षेत्र की दक्षिणोत्तर रेखा) से पूर्वदिशागत स्थानों में उन स्थानों का जितने मिनट देशान्तर हो उसे ६ घण्टों में योग करने से तथा उक्त मध्यरेखा से पश्चिम की ओर स्थित स्थानों में देशान्तर मिनटों को ६ घण्टों में घटाने पर आगत घं. मि. को तत्स्थानों में वार प्रवृत्ति जाननी चाहिए।
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