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[ मुहूर्तराज यहाँ यह शंका स्वाभाविक रूपेण उठती है कि इस कर्तरी में लग्न एवं चन्द्र को ही महत्व क्यों दिया गया तो समाधान यह है कि समस्त ग्रह लग्न के बल से शरीर सम्बन्धी एवं चन्द्र के बल से शरीर सम्बन्धी एवं चन्द्र के बल से मन सम्बन्धी (भावना के सम्बन्ध से) शुभाशुभ फल देते हैं। प्रतिष्ठालग्न में ग्रहों की युति एवं दृष्टि- (आ.सि.)
स्थापने स्युर्विधौ युक्ते दृष्टे चारादिभिः क्रमात् ।
अग्नि भी ऋषिसिद्धार्चा श्रीपञ्चत्वाग्निभीतयः । अर्थ - प्रतिष्ठालग्न में यदि चन्द्रमा मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि एवं रवि से युक्त अथवा दृष्ट हो (चन्द्र पर उक्त ग्रहों की दृष्टि हो) तो क्रमशः अग्निभय, समृद्धि, प्रतिमा की अधिष्ठायक देव सहित पूजा, लक्ष्मीप्राप्ति, मृत्यु एवं अग्निभय से फल होते हैं। स्पष्टार्थ हेतु सारणी देखें
- प्रतिष्ठालग्न में ग्रह-युति-दृष्टि-फल-सारणी -
कार्य
युति
दृष्टि
+
+
चन्द्र पर मंगल की चन्द्र पर बुध की चन्द्र पर गुरु की
अग्निभय समृद्धि प्रतिमा की अधिष्ठायक देव
+
देवादिप्रतिष्ठा
चं +
शु.
सहित अर्चा लक्ष्मीलाभ मरण अग्निभय
चन्द्र पर शुक्र की चन्द्र पर शनि की चन्द्र पर सूर्य की
चं + श.
चं +
सू.
यहाँ पर श्लोक में यद्यपि सामान्यतया दृष्टि शब्द का प्रयोग किया गया है
तथापि पूर्ण एवं त्रिपाद - दृष्टि ही ग्राह्य है अर्थात् पूर्ण एवं त्रिपाद दृष्टि होने पर ही उक्त फलाफल जानने चाहिए। समस्त शुभ कार्यों के लग्नों में त्याज्य पदार्थ- (आ.सि.)
जन्मराशि जनेर्लग्नं ताभ्यामन्त्यं तथाष्टमम् । लग्नलग्नांशयोश्चेशौ लग्नात्वष्ठाष्टमौ त्यजेत् ॥
अन्वय - (समस्तशुभकृत्येषु लग्नकुण्डल्यां) जन्मराशि, जनेः (जन्मनः) लग्नम्, ताभ्याम् (जन्मराशिलग्नाम्याम्) अन्त्यं द्वादशम् तथाष्टमम् लग्नम्, लग्नात् षष्ठाष्टमो षष्ठेऽष्टमे च स्थाने स्थितौ) लग्न लग्नाशयोः लग्न तन्तवांशकराश्योः ईशौ स्वामिनौ (एतत्सर्वम्) त्यजेत्।
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