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[ मुहूर्तराज विवाह में वर एवं कन्या के जन्मासादियों का दीक्षा में शिष्य के जन्ममासादिकों का एवं प्रतिष्ठाकर्ता (स्थापक) के जन्ममासादिकों का त्याग करना चाहिए। कतिपय आचार्यों का मत में इनका अपवाद- (व्यवहारसार)
जन्ममासि विपरीतक्षयोः व्यत्यये दिननिशोर्जनुस्थितौ .
जन्मभेऽपिकिल राशिभेदतः पाणिपीडनविधिर्न दुष्यति । अर्थ - जन्ममास में जो पक्ष विपरीत (भिन्न) हो, जन्म की तिथि में जो रात्रि दिन की उल्टापल्टी हो और जन्मनक्षत्र में भी यदि राशिभेद हो तो विवाह कार्य में दोषप्रद नहीं। यहाँ विवाह की ही भाँति दीक्षा एवं प्रतिष्ठा में भी यदि उक्त बात हो तो कोई दोष नहीं है। प्रतिष्ठा में दिनशुद्धि- (आ.सि.)
सादिमं ग्रहणस्याहः सप्ताहं च तदप्रतः ।
___ त्यजेत्रिंशांशमेकैकं प्राक् पश्चाच्चापि संक्रमात् । अन्वय - ग्रहणस्य सादिम (आद्यदिवससहित) अहः तदग्रतः च ग्रहणोपरान्तं च सप्ताहं (सप्तदिनानि) संक्रमात् प्राक् पश्चात् च एकैकं त्रिंशांशं त्यजेत्।
जिस दिन ग्रहण हो उस दिन से पूर्व का दिवस, ग्रहण का दिवस एवं ग्रहणोपरान्त के सात दिवस एवं संक्रान्ति से पूर्व का जिस दिन संक्रान्ति हो वह एवं संक्रान्ति के बाद का इस प्रकार तीन दिनों का त्याग किसी भी शुभकार्य में करना चाहिए। यहाँ कतिपय आचार्य
"त्रयोदर्शातो दशाहं सूर्येन्दुग्रहणे त्यजेत्" ___ अर्थात् सूर्य या चन्द्रग्रहण में त्रयोदशी से लेकर १० दिवस पर्यन्त (त्रयोदशी से सप्तमी तक) कोई भी शुभ कार्य न करे। अंगिरा के मत में कुछ विशेष
सर्वग्रस्तेषु सप्ताहं पञ्चाहं स्याद्दलग्रहे ।
त्रिद्वयेकार्धाङ्गलमासे दिनत्रयं विवर्जयेत् ॥ अर्थात्- यदि ग्रहण भग्रास हो तो ग्रहणोपरान्त के सात दिवसों को अर्ध ग्रास हो पाँच दिवसों को तथा तीन, दो एक या अर्ध अंगुलग्रास हो तो तीन दिवसों को किसी भी शुभ कार्य में त्यागना चाहिए। पुनः दैवज्ञ वल्लभ में
राहौ दृष्टे शुभं कर्म वर्जयेद्दिवसाष्टकम् ।
त्यवत्त्वा वेतालसंसिद्धि पापदंभमयं (पापदं भयद) तथा । अर्थात्- राहुदर्शनोपरान्त (ग्रहणोपरान्त) ८ दिनों तक शुभ कर्म वर्ण्य है। परन्तु बेताल (भूत-प्रेत्तादि) साधन तथा पाप एवं दंभपूर्ण कर्म अथवा पाप एवं भयदायक कर्म वयं नहीं अपितु करणीय हैं।
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