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[ मुहूर्तराज बुध गुड, दही गुरुवारे ।
राई चावो शुक्करवारे ॥ जो शनिवार बिडंगा चावो । (वायविडंग नामक औषधविशेष) ।
सब कारज करके घर आवो ॥ सामान्य व्यक्ति को यात्रा में उक्त वार नक्षत्र शूलादिकों का त्याग कर यात्रा करनी चाहिए, परन्तु राजाओं के लिए अथवा राजतुल्य सम्पन्न व्यक्तियों बड़े-बड़े व्यापारियों को कई बार अतिशीघ्र यात्रा करनी पड़ती है अतः ऐसे व्यक्तियों के लिए यात्रा करने में भिन्न-भिन्न नक्षत्रों के अनुसार भिन्न-भिन्न समयों का निषेध कह कर यात्रा विधान कहा है-जिसे कालशूल कहते हैंकालशूल (मु.चि.या.प्र. श्लोक ११ वाँ)
पूर्वाणे धुवमिश्रमैनं नृपतेर्यात्रा न मध्याह्नके । तीक्ष्णाख्यैरपराहणके न लघुभैः नो पूर्वरात्रे तथा ॥ मिश्राख्यैर्नच मध्यरात्रिसमये चोप्रैस्तथानो चरैः ।
रात्र्यन्ते हरिहस्तपुष्यशशिमिः स्यात्सर्वकाले शुभा ॥ अन्वय - ध्रुवमिश्रभैः (ध्रुवसंज्ञकैः मिश्रसज्ञकैश्च नक्षत्रैः) नृपतेर्यात्रा पूर्वाणे न स्यात्, तीक्ष्णाख्यैर्नक्षत्रैः नृपतेर्यात्रा मध्याह्ने न स्यात्, न अपराणके लघुमिः नक्षत्रैः नृपतेर्यात्रा न स्यात् तथा पूर्वरात्रे मैत्राख्यैर्नक्षत्रैः नृपतेर्यात्रा न स्यात्, मध्यरात्रिसमये उग्रैश्च तथा रात्र्यन्ते चरैर्नक्षत्रैर्नृपते यात्रा न स्यात्। किन्तु हरिहस्तपुष्यशशिमिः सर्वकाले (षष्टिघटिकालले अहोरात्ररूपे यस्मिन् कस्मिंश्चित्काले यात्रा) शुभा (शुभावहा) स्यात्। ___ अर्थ - ध्रुव तथा मिश्रसंज्ञक नक्षत्रों से राजा को अथवा राजतुल्य सम्पन्न व्यक्ति को पूर्वाह्न में, तीक्ष्ण नक्षत्रों से मध्याह्न में, लघु संज्ञक नक्षत्रों से अपराण में मैत्रसंज्ञक नक्षत्रों से पूर्वरात्र में उग्रसंज्ञक नक्षत्रों से मध्यरात्रि में और चरसंज्ञक नक्षत्रों से रात्रि के अन्तिम भाग में यात्रा नहीं करनी चाहिए। किन्तु श्रवण, हस्त पुष्य और मृगशिरा इन नक्षत्रों के रहते कभी भी किसी भी दिशा में यात्रा शुभावह ही होती है।
इसी प्रकार श्रीपति भी
पूर्वाहणे धुवमिश्रभैर्न गमनं तीक्ष्णैर्न मध्यन्दिने । श्रेष्ठं नापरवासरे च लघुर्भिमैत्रैर्न रात्रेर्मुखे ॥ उपाख्यैर्न च मध्यरात्रिसमये नेष्टं निशान्ते चरैः ।
सर्वेष्वेव करैन्दवेज्यहरिभिः कालेषु यात्रा शुभा ॥ इन दोनों श्लोकों का एक ही अर्थ है। इनमें जो पूर्वाण पूर्वरात्र आदि पद हैं, इनका तात्पर्य यह समझना चाहिए कि यहाँ दिन के तथा रात्रि के तीन-तीन भाग किए हैं। दिन का प्रथम तृतीय भाग, पूर्वाण
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