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मुहूर्तराज ]
(४) अथ वास्तु प्रकरणम्
त्रिविध अथवा चतुर्विध गृहप्रवेश के विषय में विगत प्रकरण के यात्रा मुहूर्त में सुपूर्वप्रवेश की चर्चा करते समय संकेत दिया ही गया है। नवीन निर्मित घर में जो प्रवेश किया जाता है उसे अपूर्वगृहप्रवेश संज्ञा से व्यवहृत किया जाता है, अर्थात् उस प्रवेश को अपूर्वग्रहप्रवेश कहते हैं । अपूर्वग्रहप्रवेश के लिए गृहनिर्माण आवश्यक होता है । गृहनिर्माण को वास्तु भी कहते हैं तथैव गाँव नगर आदि के बसाने को भी वास्तु नाम से पुकारा जाता है, अतः अब वास्तुप्रकरण विषयक मुख्य-मुख्य अंशों के सम्बन्ध में इस प्रकरण में चर्चा होगी। इसी विषय में वसिष्ठ कहते हैं
अर्थात् - जो ब्रह्मा द्वारा पूर्वकाल में कहा गया है उसी वास्तुज्ञान के सम्बन्ध ग्राम, भवन एवं नगर आदि के निर्माण के विषय में अब कहा जाएगा।
गृहनिर्माण प्रयोजन (भविष्यत्पुराण में)
"वास्तुज्ञानं प्रवक्ष्यामि यदुक्तं ब्रह्मणा पुरा । ग्रामससद्मपुरादीनां निर्माणं वक्ष्यतेऽधुना ॥ "
तथा च
-
यतस्तस्माद्गृहारंभ
अर्थात् - गृहस्थ की कोई भी क्रिया उसके निजी घर के बिना सिद्ध नहीं हो सकती । अतः मैं अब गृहारंभ एवं उसमें प्रवेश करने के विषय में कहता हूँ ।
(भविष्यत्पुराणे)
गृहस्थस्य क्रियाः सर्वाः न सिध्यन्ति गृहं विना । प्रवेशसमयौ
वे ॥
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परगेहे कृताः सर्वाः श्रौतस्मार्तक्रियाः शुभाः । निष्फलाः स्युर्यतस्तासां भूमीशः फलमश्नुते ॥
अर्थात् - श्रौत्र (वेद कथित) स्मार्त ( पुराणोक्त) सभी शुभ क्रियाएँ यदि अन्य व्यक्ति के घर में की जाएं तो वे निष्फल होती हैं क्योंकि उन क्रियाओं का फल उस मकान का मलिक भूमिपति होने के कारण ग्रहण कर लेता है।
ग्राम अथवा नगर में गृहनिर्माणार्थ स्वशुभाशुभ एवं गृहद्वार के विषय में - (मु.चि.वा. प्र. श्लो. १ला) यद्भं द्वयङ्कसुतेशदिमतेमसौ ग्रामः शुभो नामभात्, स्वं वर्गं द्विगुणं विधाय परवर्गाढ्यं गजैः शोषितम् । काकिण्यस्त्वनयोश्च तद्विवरतो यस्याधिकाः सोऽर्थदोऽ थ द्वारं द्विजवैश्यशूद्रनृपराशीनां
"
हितं पूर्वतः ॥
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