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मुहूर्तराज ]
ताराफल
विपत्प्रदा विपत्तारा प्रत्यरा प्रतिकूलदा । निधनाख्या तारका तु सर्वथा निधनप्रदा ॥
अर्थात्- विपन्नामक तारा विपद् देने वाली, प्रत्त्यरानात्मक तारा प्रतिकूल फलदा और निधना नाम की तारा मृत्युदायिनी होती है अतः इनका त्याग करके शेष शुभताराओं में गृहारम्भ करना चाहिए। तारा इस प्रकार से जाननी चाहिए।
घर के नक्षत्र से (जैसा कि पूर्व सारणी में दर्शाया गया है) जिस दिन गृहारंभ करना है उस दिन के चन्द्र नक्षत्र तक गणना करने पर विवाहप्रकरणोक्त विधि से यदि अशुभफलदायिनी ताराएँ, आवें तो उन्हें त्यागना चाहिए और जिस दिन शुभतारा हो उस दिन गृहारंभ करना चाहिए । कुछ एक तो ऐसा कहते हैं कि गृहकर्त्ता व्यक्ति के नाम नक्षत्र से गृहनक्षत्र तक गिनने पर यदि तीसरी, पाँचवीं और सातवीं ताराएं हों तो वह भवन उस गृहकर्त्ता के लिए शुभ नहीं है, अतः पूर्वनिर्धारित क्षेत्रफल में कमी वेशी करके ऐसा गृहनक्षत्र लाना चाहिए कि गृहपति के नामनक्षत्र से उस नक्षत्र तक गणना करने पर शुभतारा आती हो ।
नक्षत्रफल -
गृहपति और गृहनक्षत्र समान भी नहीं होना चाहिए अन्यथा वह मरणप्रद होता है यथा" गृहस्य तत्पतेस्त्वेकं धिष्ण्यं चेन्निधनप्रदम्" "वसिष्ठ"
एक नाडीदोषाभाव
गृहारंभ में नाडी वेध दोष नहीं होता ऐसा ज्योतिश्चिन्तामणि में कहा गया है यथासेव्यसेवकायोश्चैव गृहत्त्स्वामिनोरपि ।
परस्परं मित्रभावे एकनाडी प्रशस्यते ॥
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इस तरह इन आय, व्यय, अंश, नक्षत्र आदि के सम्बन्ध में वरवधू के मेलापक की ही भांति गृहारंभ में विचार करना अत्यावश्यक होता है।
गृहारंभ में समय निषेध - (मु.चि.वा.प्र. श्लो ६ठा)
गृहशतत्स्त्रीसुखवित्तनाशोऽर्केन्द्वीज्यसुक्रे
विबलेऽस्तनीचे ।
कर्तुः स्थितिर्नो विधुवास्तुनोर्भे पुरः स्थिते पृष्ठगते खनिः स्यात् ॥
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अन्वय गृहपतेः जन्मराशितः अर्केन्द्वीज्यशुक्रे ( सूर्यचन्द्रगुरुशुक्रेषु) विबले (निर्बले) अस्ते नीचे (नीचराशिस्थिते वा) सति क्रमतः गृहेशतत्स्त्री सुखवित्तनाशः भवेत् । अथ च विधुवास्तुनोः (चन्द्रवास्तुनोः ) भे
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