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[ मुहूर्तराज (नक्षत्रे) पुरः स्थिते तदा कर्तुः (गृहपते:) स्थितिः (गेहे निवास:) नो (न स्यात्) अर्थात् तद्गृहं शून्यमेव तिष्ठेदित्याशयः। यदि ते उभे नक्षत्रे यदि पृष्ठगते भवत: तर्हि तत्र गृहे खनि: (चौरकृतखातम्) भवति। ___अर्थ - गृहपति की राशि से यदि सूर्य निर्बल, अशुभ अथवा नीचराशि का हो तो गृहपति का विनाश, चन्द्र यदि निर्बल अस्त अथवा नीचस्थ हो तो गृहपति की पत्नी का नाश, गुरु यदि वैसा हो तो सुखनाश
और शुक्र हो तो धननाश होता है। यदि चन्द्र नक्षत्र और वास्तु नक्षत्र आगे स्थित हो तो उस घर में निवास नहीं हो सकता और यदि पृष्ठ भाग में स्थित हो तो चोर आदि द्वारा उस घर में सेंध लगाकर वहाँ से धनापहरण किया जाता है।
विशेष - मान लो कि गृहपति का जन्म नक्षत्र रोहिणी है और गृह नक्षत्र श्रवण है और गृह का द्वार पूर्व में है तो चन्द्र नक्षत्र तो पुर:स्थित हुआ एवं वास्तु नक्षत्र पृष्ठ स्थित हुआ। और यदि ऐसी स्थिति में वास्तु पश्चिम द्वार हो तो वास्तु नक्षत्र पुर:स्थित हुआ और चन्द्र नक्षत्र पृष्ठ स्थित हुआ। यदि वास्तु नक्षत्र एवं चन्द्र नक्षत्र कृत्तिका से लेकर आश्लेषा पर्यन्त हो तथा हम भवन को पूर्व द्वार करे तो वास्तु एवं चन्द्र दोनों के नक्षत्र पुर:स्थित हुए और यदि वास्तु तथा चन्द्र नक्षत्र अनुराधा से सात नक्षत्रों के अन्तर्गत हो तो उक्त पूर्वद्वारीय भवन के ये दोनों पृष्ठ गत हुए। इसी प्रकार पश्चिम द्वार में भी समझना चाहिए।
अत: चन्द्र नक्षत्र और वास्तु नक्षत्र द्वार की ओर अथवा भवन के पीछे की ओर न होकर पार्श्व में होने चाहिए।
वास्तु शास्त्र में भी-ऋक्षं चन्द्रस्य वास्तोश्च अग्रे पृष्ठे न शस्यते । अर्थात् चन्द्र एवं वास्तु इन दोनों के नक्षत्र आगे-पीछे शुभद नहीं श्रीपति ने तो चन्द्र का ही फल कहा है-“क्षपाकरेंनैव गृहं पुरःस्थे कुर्याद् वसेत्तत्र न जातु कर्ता। पतन्ति स्वप्नानि पृष्ठसंस्थे यत्नेन तस्मादिदमत्र चिन्त्यम्” यह कुछ एक का कथन है कि चन्द्रमा की यह पुर:स्थिति एवं पृष्ठस्थिति लग्नवशात् माननी चाहिए यथा यदि गृह पूर्वाद्वारीय हो तो लग्नगत चन्द्रमा पीछे और उत्तर मुख घर में लग्नगत चन्द्रमा दाहिनी और होगा। इसी प्रकार यदि चन्द्रमा दशम स्थान में हो तो दक्षिण मुख गृह में सम्मुख, पश्चिम मुख गृह में बाएं, उत्तर मुख गृह में पीछे और पूर्व मुख गृह में दाहिनी ओर समझना चाहिए। एवमेव चतुर्थ एवं सप्तम स्थान में चन्द्र की स्थिति से दिशानुसार मुख वाले घरों के विषय में भी विचार करना चाहिए।
वास्तु में चन्द्रबल- (आ.सि.)
वास्तु को प्रारम्भ करने में भी चन्द्रमा का आगे व पीछे के भाग में रहना श्रेष्ठ नहीं, जैसा कि । आरंभसिद्धि में कहा है
"प्रारब्धं सम्मुखे चन्द्रे न वस्तुं वास्तु कल्पते । पृष्ठस्थे खात्रपाताय द्वयोस्तेन त्यजेद् गृही ॥"
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