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[ मुहूर्तराज हो उसमें रात्रि को यात्रा करें। यदि सूर्य उत्तरायण हो तो उत्तर या पूर्व में दिन को, दक्षिणायन हो तो दक्षिण या पश्चिम में दिन को यात्रा करें और यदि चन्द्रमा उत्तरायण में हो तो उत्तर और पूर्व में रात को
और दक्षिणायन हो तो दक्षिण या पश्चिम में रात को यात्रा करना शुभ है। इसके विपरीत यात्रा करने पर यात्रार्थी का वध अथवा उसे भयंकर पीड़ा होती है। यात्रा में सम्मुख शुक्र का दोष-(मु.चि.म.या.प्र.श्लो. ४० वाँ)
उदेति यस्यां दिशि यत्र याति ,
गोलभ्रमाद्वाथ ककुब्भसङ्के । त्रिधोच्यते सम्मुख एवं शुक्रः ,
यत्रोदितस्तां तु दिशं न यायात् ॥ अन्वय - शुक्रः यस्यां दिशि (पूर्व पश्चिमे वा) उदेति (उदयं गच्छति) वा (अथवा) गोलभ्रमाद् (उत्तरदक्षिणगोलभ्रमणवशेन) यत्र (यस्यां दिशि उत्तरस्यां दक्षिणस्यां वा) याति (गच्छति) अथ ककुब्भसंघे प्राच्यादि दिशि कृत्तिकादिनक्षत्रन्यासवशेन यद्दिङ्नक्षत्रेचरति एवं त्रिधा (गन्तु) शुक्रः सम्मुखः एव (गण्यते) यत्र उदितः शुक्रः तां दिशं तु न यायात् (तां दिशं तु नैव यायात्)
अर्थ - शुक्र पूर्व अथवा पश्चिम में जब उदित हो तो पूर्व अथवा पश्चिम की ओर प्रयाणकर्ता के वह सम्मुख होता है। अथवा उत्तर दक्षिण गोल के कारण जब शुक्र उत्तर अथवा दक्षिण गोल में हो तब वह उत्तर या दक्षिण में यात्रार्थी के सम्मुख होता है और प्राची आदि दिशाओं में कृत्तिकादि सात २ नक्षत्रों में से किसी पर भी शुक्र की स्थिति हो तब वह उन २ दिशाओं की ओर यात्राकर्ता के सम्मुख होता है, इस प्रकार तीन विधाएँ शुक्र के सम्मुखत्व में हैं। परन्तु जिस दिशा में वह कालांशवश उदित दीखे उस
ओर तो कदापि यात्रा नहीं करनी चाहिए। इसी विषय में श्रीपति भी
उदयति दिशि यस्यां याति यत्र भ्रमाद् वा , विचरति च भचक्रे येषु दिग्द्वारभेषु । त्रिविधमिह सितस्य प्रोच्यते सम्मुखत्वम् ,
मुनिभिरुदय एव त्यज्यते तत्र यत्नात् ॥ ___ अन्वय - यस्यां दिशि (शुक्रः) उदयति यत्र वा भ्रमाद् यानि येषु च दिग्द्वारभेषु भचक्रे विचरति च, इह त्रिविधम् सितस्य (शुक्रस्य) सम्मुखत्वम् प्रोच्यते तत्र मुनिभिः उदय एवं त्यज्यते नाऽन्यद्विप्रकारसम्मुखत्वम्।
अर्थ - शुक्र जिस दिशा में उदित हो, भ्रमणवश जिस दिशा में जाय और जन दिग्द्वारनक्षत्रों पर हो उस दिशा की ओर यात्रा करनेवाले के लिए शुक्र का सम्मुखत्व है। इस तरह यह सम्मुखत्व तीन प्रकार का है।
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