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[ मुहूर्तराज दिनचर पशुपक्षियों का रात्रि में एवं रात्रिचरौ का दिन में शकुन मान्य नहीं है। तथा च ग्रामीण पशु पक्षियों का वन में एवं वनवासी पशुपक्षियों का गाँव में शकुन नहीं माना गया है। स्थानभेद से शुभ शकुन भी शुभफलद नहीं - (वराह)
प्रभग्नशुष्कदुभकण्टकीषु श्मशानभस्माग्नितुषाकुलेषु ।
प्राकार शून्यालय जर्जरेषु सौम्योऽति पापः शकुनः प्रकल्य्यः ॥ अर्थात् - टूटे सूखे कंटीले वृक्षादि श्मशान भस्म अग्नि एवं तुष से भरे स्थान प्रकार (परकोटा) सूना घर एवं अन्य जर्जर स्थान इनमें होने वाले शुभ शकुन भी अशुभफलदायी होते हैं। विरुद्ध शकुन निन्दा- (दै. मनो.)
वरं शुभं दुर्जनकृष्णसौं वरं क्षिपेत् सिंहमुखे स्वमङ्गम ।
वरं तरेद् वारिनिधिं भुजाभ्यां नोल्लंघयेद् दुःशकुनं कदापि । अर्थात् - दुष्ट एवं कृष्ण सर्प मिल जाए तो भी शुभ है, सिंह के मुख में अपने अंगों को डालना भी शुभ है एवं हाथों से समुद्र में तैरना भी ठीक है परन्तु दुष्ट शकुन का उल्लंघन करना अशुभ है। अर्थात् दुःशकुनों के होने पर यात्रा कदापि नहीं करनी चाहिए। यात्रा की आवश्यकता में दुष्ट शकुन होने पर कर्त्तव्य - (मु.चि.या.प्र. १०८ वाँ)
आद्येऽपशकुने स्थित्वा प्राणानेकादश व्रजेत् ।
द्वितीये षोडश प्राणान् तृतीये न क्वचिद् व्रजेत् ॥ अन्वय - प्रयाणकाले यात्रार्थी आद्ये प्रथमे अपशकुने दुःशकुने संजाते सति एकादशप्राणान् (एकादशश्वोसोच्छवासपरिच्छेद्यं कालं यावम्) स्थित्वा समीचीने शकने संजातेऽग्रे व्रजेत्। ततः द्वितीयेऽपि अपशकुने षोडश प्राणान् यावन् स्थित्वा शोभने शकुने सति व्रजेत् किन्तु तृतीयेऽपशकुने भूते यात्रार्थे क्वचिदपि न व्रजेत् किन्तु गृहभवे प्रत्यागच्छेत्।
अर्थ - यात्रार्थी को चाहिए कि यदि प्रयाणकाल में उसको दुःशकुन हो तो ११ प्राण काल तक अर्थात् ग्यारह सामान्य श्वासोच्छास में जितना समय लगे तब तक ठहर कर फिर सुशकुन देखकर आगे चले। यदि आगे चलने पर पुनः अपशकुन हो जाए तो सोलह प्राणकाल तक रुके और फिर शोभन शकुन देखकर आगे बढ़े किन्तु फिर भी अगर अपशकुन हो जाए तो फिर आगे न बढ़े प्रत्युत उसी स्थान से लौटकर अपने घर आ जाए। प्राण समय प्रमाण -(शौनक मत में)
"लघ्वाक्षरैः स्फुटोक्तै प्राणाः कथितास्तु विंशतिभिः"
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