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[ मुहूर्तराज किया जाए तो प्रवेशकर्ता की पत्नी का नाश होता है। कृत्तिका में प्रवेश करने पर घर में अग्नि लग जाती है। तीनों पूर्वा भरणी और मघा में प्रवेश करने पर प्रवेशकर्ता का स्वयं का मरण होता है और मूल, ज्येष्ठा, आर्द्रा और आश्लेषा में प्रवेश करने पर पुत्र का विनाश होता है। विशेष-- गृहप्रवेश त्रिविध है (१) अपूर्वप्रवेश (२) सूपूर्व प्रवेश (३) द्वन्द्वा भय प्रवेश यथा
"अपूर्वसंज्ञः प्रथमः प्रवेशो यात्रावसाने च सुपूर्वसंज्ञः ।
द्वन्द्वाभयस्त्वग्निभयादि जान सचेवं प्रवेर्शास्त्र विधः प्रदिष्टः ॥ अर्थात्- नूतनगृहप्रवेश अपूर्व प्रवेश है यात्रा के अन्त में जो गृहप्रवेश किया जाय, उसे सुपूर्वप्रवेश कहा गया है एवं जलाग्नि से या राजकोप से नष्ट या नाशित गृह में उसका पुनर्निर्माण करके जो उसमें प्रवेश किया जाता है उस प्रवेश को द्वन्दवाभय प्रवेश कहते हैं। इस सुपूर्वप्रवेश के विषय में श्रीपति
"शुभप्रवेशो मूदुभिधुवाख्यैः क्षिप्रैश्चरैः स्यात्पुनरेव यात्रा । उग्रैर्नृपो दारुणभैः कुमारो राज्ञी विशाखासु विनाशमेति ॥
कृत्तिकासु भवनं कृशानुना दह्यते प्रविशतां न संशयः । इसका अर्थ - “यात्रा निवृत्तौ” इस श्लोक के समान ही है। सुपूर्वप्रवेश में वर्ण्य तिथिवार एवं लग्न– (श्रीपति मन से)
"रिक्तास्तिथि भूसुत भानुवारौ, निन्द्याश्च योगाः परिवर्जनीयाः ।
मेषः कुलीरो मकरस्तुला च त्याज्याः प्रवेशे हि तथा तदंशाः । अर्थात्, ४, ९ एवं १४, मंगल एवं रविवार एवं अन्य निन्दित योग सुपूर्व प्रवेश में छोड़ने चाहिए तथैव मेष, कर्क, मकर एवं तुला लग्न अथवा अन्य राशियों के लग्नों में (मेष, कर्क, मकर और तुला) इनके नवांशों को भी सुपूर्वप्रवेश में त्यागना चाहिए।
यात्रा मास से एवं यात्रादिन से नवम मास या नवम दिन को भी सुपूर्वप्रवेश नहीं करना चाहिए जैसा कि गुरु कहते हैं
"निर्गमान्नवमे मासि प्रवेशो नैव शोभनः ।
नवमे दिवसे चैव प्रवेशं नैव कारयेत् ॥" . इसी प्रकार विवाह प्रकरणोक्त दोषों को भी यात्रा में त्यागना चाहिए। किन्तु सप्तम में बुध तथा गुरु के स्थित होने से उत्पन्न जामित्र दोष एवं धनुरर्कादि मास दोष जो कि विवाह में त्याज्य हैं यात्रा में त्याज्य
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