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मुहूर्तराज ]
यात्रा में दिशा शुद्धि के लिए परिधज्ञान
सप्त सप्त गमने
वसुऋक्षादुत्तराप्रभृतिदिक्षु
शुभानि ।
वह्निवायुपरिधोऽत्र न लङ्घ्यो मध्यमानि तु मिथः स्वदिशोः स्युः ॥
अन्वय वसुऋक्षात् (धनिष्ठानक्षत्रात् आरभ्य ) सप्त सप्त भानि गमने शुभानि अत्र वह्निवायुपरिधः (वह्निकोणतः वायव्यकोणपर्यन्ता खचिता रेखा) न लंध्य: ( अस्य लंधनं न शुभदं प्रत्युताशुभदमेव ) तथा च स्वदिशोः मिथः सप्त सप्त भानि गमने मध्यभानि ( मध्यम फलदानि ) स्युः ।
अर्थ धनिष्ठा नक्षत्र से लेकर सात-सात नक्षत्र क्रमश: उत्तर, पूर्व, दक्षिण एवं पश्चिम दिशा द्वार के हैं। अत: इन २ नक्षत्रों में उन २ दिशाओं में यात्रा शुभ है। अग्निकोण से लेकर वायव्य कोण तक खींची हुई परिध रेखा उल्लंघन करना अशुभ फलदायी है। तथा च धनिष्ठादि सात नक्षत्र तथा कृत्तिकादि सात नक्षत्र परस्पर स्वकीय है। इसी प्रकार मघादि सात नक्षत्र एवं अनुराधादि सात नक्षत्र भी परस्पर स्वकीय हैं, अतः इन स्वकीय नक्षत्रों में उत्तर के नक्षत्रों में पूर्वयात्रा पूर्व के नक्षत्रों में उत्तर की यात्रा एवं दक्षिण के नक्षत्रों में पश्चिम की यात्रा और पश्चिम के नक्षत्रों में दक्षिण की यात्रा करना मध्यम है । परन्तु उत्तर पूर्व के नक्षत्रों में दक्षिण पश्चिम की ओर यात्रा तथा दक्षिण पश्चिम के नक्षत्रों में उत्तर पूर्व की ओर यात्रा करना अशुभ है।
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यहाँ यह शंका उत्पन्न होती है कि उपर्युक्त दिग्द्वार नक्षत्र तथा परिधादि बताते हुए पूर्वादि दिक्चतुष्टय में यात्रा की शुभता एवं अशुभता तो कहीं हैं पर विदिशाओं में यात्रार्थ विधान या निषेध क्यों नहीं किया गया? इसका उत्तर यह है कि पूर्व दिग्द्वार के नक्षत्रों में अग्निकोण में, दक्षिण दिग्द्वार के नक्षत्रों में नैऋत्य कोण में, पश्चिम द्वार के नक्षत्रों में, वायव्य कोण में एवं उत्तर दिग्द्वार नक्षत्रों में ईशान कोण की यात्रा स्वयं ही सिद्ध है क्योंकि विदिशाएँ तो स्वस्व दिशाओं का अनुसरण करती ही है। इस विषय में दैवज्ञवल्लभ भी सम्मत हैं
“यायात् पूर्वद्वार भैरग्निकाष्ठां प्रादक्षिण्येनैव नाशा विपूर्वा "
अर्थात् पूर्वादि दिग्द्वार नक्षत्रों में उनसे दाहिनी उपदिशाओं में यात्रा करना श्रेयस्कर है बाईं ओर की विदिशाओं में नहीं। श्री पूर्णभद्र तो इस नियम के साथ विशेषतया भी कहते हैं
स्वामिनः सप्त भौमाद्याः क्रमतः कृत्तिकादिषु । प्राच्यादौ तत्सनाथेषु भेषु यात्रा महाफला ॥
अन्वय
कृत्तिकादिषु क्रमतः भौमाद्याः (मंगलतः आरभ्य चन्द्रं यावत् ) सप्त स्वामिनः सन्ति अतः तत्सनाथेषु तत्तद्वारयुक्तेषु भेषु प्राच्यादौ यात्रा महाफलदा भवति ।
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अर्थ - कृत्तिकादि भरणीपर्यन्त क्रमशः भौमादि चन्द्रयावत् स्वामी है अतः इन स्वामियों से युक्त नक्षत्रों में उन-उन दिशाओं की यात्रा महान् फल देने वाली होती है ।
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