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[ मुहूर्तराज राहुफल-(स्वरोदय में)
सम्मुखा वामसंस्था वा यस्यैवं राहुमण्डली । पराजयो भवेत्तस्य वादबूतरणादिषु ॥ यस्य दक्षिणपृष्ठस्था ह्येषा राहुपरम्परा ।
सहस्रशः शतेनापि परसैन्यं निरकृन्तति ॥ अर्थ - जिस यात्रार्थी अथवा युद्धार्थी के राहुमण्डली सम्मुख अथवा वाम भाग में स्थित हो उसको वाद द्यूत युद्ध एवं यात्रा में पराजय अथवा अर्थहानि प्राप्ति होती है, किन्तु यदि यही राहुमण्डल यात्रा समय में दाहिनी तथा पीछे की ओर हो तो वह सामान्य सेना से भी महती संस्था वाली सेना को नष्ट कर सकता है। चन्द्रचार ज्ञान-(आ.सि.)
चन्द्रश्चरति पूर्वादौ क्रमात् त्रिर्दिक्चतुष्टये ।
मेषादिष्वेष यात्रायां सम्मुखस्त्वतिशोभनः ॥ __ अन्वय - चन्द्रः मेषादिषु राशिषु पूर्वादौ दिक्चतुष्टये क्रमात् (अनुक्रमत:) त्रिः (वारत्रयम्) चरति, एष यात्रायां सम्मुखः (सम्मुखस्थश्चेत्) अतिशोभनः (अतिशुभफलदः) भवति।
अर्थ - चन्द्रमा मेषादि बारह राशियों में पूर्वादि चार दिशाओं में अनुक्रम से (पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर इत्यादि क्रम से) विचरण करता है। यह चन्द्रमा यात्रा समय में यदि सम्मुखस्थ हो तो अतीव श्रेष्ठ फल प्रदान करता है।
चन्द्रमा भी शुक्र की ही भाँति तीन प्रकार सम्मुखस्थ होता है यथादिन शुद्धि में श्री रत्नशेखरसूरि
उदयवसार अहवा दिसिर दारभवसओ३ हवई ससी समुहो ।
सो अभिमुहो पहाणो गमणे अमिआई वरिसन्तो ॥ अर्थात् चन्द्र जिस दिशा में उदय प्राप्त करता है, उस दिशा में उदय वश, गोलभ्रम से जिस दिशा में होता है, उसमें दिशावश और दिशा द्वार वाले नक्षत्रों को प्राप्त हो तब वह दिग्द्वार नक्षत्र वश इस प्रकार तीन तरह से उसका (चन्द्र का) सम्मुखत्व माना गया है। यदि वह चन्द्रमा प्रयाण करते समय सम्मुखस्थ अथवा दक्षिणस्थ हो तो यात्रा में नितान्त अमृत वर्षा करता है, अर्थात् यात्रा सुखदायिनी और सिद्धप्रदा होती है। चन्द्रफल-(ना.चं. टिप्पणी में)
सम्मुखीनोऽर्थलाभाय, दक्षिणः सर्वसम्पदे । पश्चिमः कुरुते मृत्यु वामश्चन्द्रो धनक्षयम् ॥
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