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वेध का अपवाद - (चक्रोद्धार मत से )
चक्रे तस्मिन्नेकरेखास्थितेन
तद् विद्धर्क्ष खेचरेण प्रदिष्टम् । क्रूरै विद्धं सर्वाधिष्ण्यं विवर्ज्यम् सौम्यै विद्धं नाखिलं पाद एव ॥
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अन्वय
तस्मिन् चक्रे एकरेखास्थितेन खेचरेण तद् विद्धर्भं प्रदिष्टं यदि तद् (भम् ) क्रूरैः विद्धं स्यात्तर्हि सर्वाधिष्टयं विवर्ज्यम् यदि च सौम्यैर्विद्धेम् तदा अखिलं न किन्तु तन्नक्षत्रस्य पादएव वर्ण्यः ।
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अर्थ
उस सप्तशलाका में एक रेखा पर स्थित ग्रह से सामने वाला नक्षत्र विद्ध माना जाता है। यदि
वह नक्षत्र पापग्रह से विद्ध हो तो वह पूरा का पूरा शुभकृत्य में वर्जनीय है और यदि सौम्यग्रह से विद्ध हो तो केवल चरण ही वर्ज्य है।
पादवेध के विषय में वसिष्ठ
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वेधफल - (शी. बो.)
अतोऽन्त्यपादमादिगो द्वितीयगस्तृतीयकम् । तृतीयगो द्वितीयकं चतुर्थगस्तु चादिभंम् । भिनत्ति वेधकृद् ग्रहो न चान्यपादमादरात् ॥
अन्वय - वेधकृद ग्रहः यदि आदिपादगो भवेत् तदा अन्त्यपादं द्वितीयगः तृतीयपादम् तृतीयगः द्वियीयकं चतुर्थस्तु आदिमं पादं भिनत्ति न अन्यम् पादम्।
[ मुहूर्तराज
अर्थ - वेधकर्ता ग्रह यदि नक्षत्र के आदिम चरण पर स्थित हो सामने पर स्थित चतुर्थपाद को विद्ध करता है, द्वितीय चरण पर स्थित हो तो सम्मुखस्थ नक्षत्र के तृतीय पाद को और तृतीय चरण पर ग्रह स्थित हो सम्मुखस्थ नक्षत्र के द्वितीय पाद को और चतुर्थ चरण पर ग्रह स्थित हो तो प्रथम पाद को ही विद्ध करता है, इसके अतिरिक्त पाद विद्ध नहीं होते। अतः विद्ध पाद का त्याग करके अन्य पादों में किसी भी शुभकार्य को करने में किसी प्रकार की शंका नहीं क्योंकि सर्प से डसी हुई अंगुली को काट देने पर शरीर में विष का प्रभाव कैसे हो सकता है। इसी आशय को लेकर आरंभसिद्धि की टीका में श्री पूर्णभद्र ने कहा है
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विद्धं पादं परित्यज्य कुर्यात्कार्यमशंकितः ।
सर्पदष्टाङ्गुलिच्छेदे विषावेशो भवेत् कुतः ॥
रविवेधे च वैधव्यम् कुजवेधे कुलक्षयः । बुधवेधे भवेद् वन्ध्या, प्रव्रज्या गुरुवेधतः ॥ अपुत्री शुक्रवेधे च सौरो चन्द्रे च दुःखिता ।
परमर्त्यरता राहोः केतो स्वच्छन्दचारिणी ॥
अर्थ - रविवेध से वैधव्य, मंगलवेध से कुलक्षय, बुधवेध से वन्ध्यात्व ( सन्तान न होना) गुरुवेध से प्रवज्या, शुक्रवेध से पुत्रहीनता, शनि और चन्द्र वेध से दुःख, राहुवेध से परपुरुष में रति तथा केतुवेध से स्वेच्छाचार इत्यादि फल होते हैं।
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