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मुहूर्तराज ]
[७९
-त्रिविध बाणदोष परिहार ज्ञापक सारणीसमय - भेद से
वार - भेद से
क्र.सं.
कार्य - भेद से
समय
वर्जनीय बाण
वार
वर्जनीय बाण
| कार्य
वर्जनीय बाण
रात्रि में दिन में
चोर तथा रोग राज तथा अग्नि
मृत्यु मृत्यु
शनि को बुध को मंगल को रवि को
राजबाण यज्ञोपवित मृत्यु
गृहगोपन अग्नि और चोर | नृपसेवा
यान विवाह
रोग अग्नि राज
प्रातः
सायम्
रोग
मृत्यु
अथ एकार्गल दोष- (मु.चि.वि.प्र.श्लो. ६२वाँ)
व्याघातगंडव्यतिपातपूर्वे शूलान्त्यवज्रे परिधातिर्गडे । एकार्गलाख्यो ह्यभिजित्समेतो दोषः शशी चेद विषमसंगोऽर्कात् ॥
अन्वय - व्याघातगंडव्यतिपातपूर्वे, शूलान्त्यवर्जे, परिद्यातिगंडे चेद् शशी कर्कात् अभिजित्सनेत: विषमर्भगः तदा एकार्गलाख्यः दोष (भवति) __ अर्थ - जिस दिन व्याघात, गंड, व्यतिपात, विष्कंभ, शूल, वज्र परिध और अतिगंड इन योगों में से कोई भी योग हो उस दिन यदि सूर्य नक्षत्र से अभिजित् समेत गणना करने पर यदि चन्द्र विषम संख्या वाले नक्षत्र पर हो, अर्थात् सूर्य नक्षत्र से चन्द्र नक्षत्र विषम संख्यांक हो तो एकार्गल नामक दोष होता है, जो कि खाजूंर चक्र द्वारा विहित है और यदि सूर्यनक्षत्र से चन्द्रनक्षत्र समसंख्या क्रमांक का हो तो यह दोष नहीं होता।
चिन्तामणिकार ने इस दोष में अभिजित् नक्षत्र को गणना में मान्यता दी है। त्रिविक्रम तथा केशवार्क के भी मत से एकार्गल में अभिजित् की गणना मान्य है। यथा
विरुद्धनामयोगेषु साभिजिद्विषमर्भगः
अर्कादिन्दुस्तदा योगो निन्द्य एकार्गलाभिधः (त्रिविक्रम) और "न्यस्ते सहाभिजिति" इत्यादि से केशवार्क ने भी एकार्गल दोष में अभिजित् को ग्राह्य किया है।
परन्तु नारद ने “एकार्गलो दृष्टिपातश्चाभिजिद्रहितानिवै” कहकर अभिजित् को मान्यता नहीं दी है।
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