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लाभ
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[ मुहूर्तराज उक्त एवं अनुक्त अनेकों दोषों के अनेक परिहार (मु.चि.वि.प्र. श्लोक ९०वाँ)
केन्द्रे कोणे जीव आये रवौ वा ।
लग्ने चन्द्रे वापि वर्गोत्तमे वा ॥ सर्वे दोषा नाशभायान्ति चन्द्रे ।
तद्वदुर्मुहूर्ताशदोषाः ॥ । अन्वय - केन्द्रे कोणे वा जीवे, आये वा रवौ, लग्ने चन्द्रे वा वर्गोत्तमे तद्वद् चन्द्रे लाभे (एकादशस्थानगे) दुर्मुहूर्ताशदोषाः इत्यादिसर्वे दोषाः नाशमायान्ति।
अर्थ - केन्द्र अथवा ५-९ स्थान में गुरु के रहते ११ वें सूर्य के रहते लग्नराशि के स्वनवांश में (यथा मेष में मेष का ही नवांश, वृष में वृष का ही इत्यादि प्रकार से) चन्द्र के भी अथवा स्वनवांश राशि में रहते और इसी प्रकार चन्द्र के एकादश स्थान में रहते सभी दुर्मुहूर्तादि एवं दुष्टग्रहनवांशादि तथा अन्य भी अनेक दोष नष्ट हो जाते हैं।
सामान्यतः अनेक दोष परिहार – (मु.चि.)
त्रिकोणेकेन्द्रे वा मदनरहिते दोषशतकम् । हरेत्सौम्यः शुक्रो द्विगुणमपि लक्षं सुरगुरुः ॥ भवेदायेकेन्द्रेऽगप उत लवेशो यदि तदा ।
समूहं दोषाणां दहन एवं तूलं शमयति ॥ अन्वय - त्रिकोणे (नवमपंचमयोः स्थानयोः) मदनरहिते केन्द्रे (प्रथमचतुर्थदशमस्थानेषु) वा यदि सौम्यः (बुधः) तदा (स: बुधः) दोत्रशतकं, एवं प्रकारकः शुक्रः द्विगुणम् (दोषाणां द्वे शते) सुरगुरुः लक्षं (दोषाणाम्) शमयति। तथा च अंगपः (लग्नेश:) उत: लवेश: (लग्ननवांशराशिपतिः) यदि आये केन्द्रे वा तदा सोऽपि दोषाणां समूह तथा शमयति यथा दहनः (अग्निः) तूलं (कार्पासराशियम्) शमयति (दहति)।
अर्थ - यदि त्रिकोण में (९-५) अथवा सप्तमस्थान को छोड़कर केन्द्र में (१, ४, १०) बुध स्थित हो तो वह सौदोषों को शुक्र दो सौ दोषों को, गुरु लाख दोषों को मिटाता है। तथैव यदि लग्नपति अथवा लग्ननवांश पति आयस्थान में ११ वें में स्थान अथवा केन्द्र में हो तो भी वह दोष समूह को इस प्रकार नष्ट करता है, जिस प्रकार अग्नि कपास के ढेर को जला डालती है। इतिश्री सौधर्मबृहत्तपो गच्छीय श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरान्तेवासि मुनिश्री गुलाब विजय संगृहीते
मुहूर्तराजे द्वितीय शुद्धि प्रकरण समाप्तम्
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