________________
मुहूर्तराज ]
[ १०१
-सूर्यादि ग्रहों की स्थानस्थित्यनुसार उत्तमादि अवस्था ज्ञापक सारणी
उत्तमावस्था के स्थान
मध्यमावस्था के स्थान
अधमावस्था के स्थान
चन्द्र
१, ४, ७, ८, ९, १०, १२
१, ४, ५, ८, ९, १२ १, २, ४, ५, ७, ८, ९, १२
मंगल
बुध
८, १२
२, ५, ६, ११ २, ३, ६, ११
७-१० ३, ६, १०, ११
- - - २, ३, ५, ६, १०. ११
१, ४, ७, ९ १, ४, ७, १०, ९, ५, ११, २, ३, ६ __ ३, ६, ९, ११
२, ५, ६, ८, ११ ___ ३, ६, ११ | २, ५, ८, ९, १०, १२
शुक्र
२, ५
८, १२ १, ४, ७, ८, १०, ११ १, ४, ७, ९, १०, १२
१, ४, ६
शनि
दीक्षा लग्न में विशेषता-(श्री हरिभद्रसूरि मत से)
"अहवावि मज्झिमबलं काऊण सणिं गुरुं च बलवन्तम् ।
अबलं सुक्कं लग्गे तो दिक्खं दिज्जा सीस्सस ॥" अर्थात् अथवा शनि को लग्न में मध्यमबली बनाकर, गुरु को बलवान् करके और शुक्र को निर्बल बनाकर शिष्य को दीक्षा देनी चाहिए। उपर्युक्त प्राकृत गाथा में कथित शनि की मध्यमबलवत्ता, गुरु की उत्तमता और शुक्र की निर्बलता इस प्रकार से जाननी चाहिए, यथा-दूसरे, पाँचवें, आठवें और ११ वें स्थान पणफर संज्ञक होने से वहाँ रहने वाला शनि मध्यमबली होता है और ६ ठा स्थान भी आपोक्लिम संज्ञक होने से दिग्बल रहित है, अत: वहाँ भी स्थित शनि मध्यमबली होता है। गुरु केन्द्र (१, ४, ७, १०) और त्रिकोण में होने से तो उत्तमबली है ही, किन्तु ११ वें भी हर्षस्थानीय होने के कारण उत्तमबली होता है। तथा च तीसरा, छठा, नवाँ और बारहवाँ ये स्थान आपोक्लिम संज्ञक होने से वहाँ स्थित शुक्र हीनबली है। इस विषय में त्रैलोक्य प्रकाश ग्रन्थ में कहा गया है
“रूपार्धपादवीर्याः स्युः केन्द्रादिस्था नमश्चराः” अर्थात् केन्द्र स्थानों में स्थित ग्रह पूर्ण बली अर्थात् (२० विंशोपकयुक्त) पणफरसंज्ञक स्थानों में स्थित ग्रह मध्यमबली (१० विंशोपकयुक्त) और आपोक्लिम संज्ञक स्थानों में स्थित ग्रह हीनबली (५ विंशोपकयुक्त) होते हैं।
लोचकर्मादिमुहूर्त
मृदुधुवचरक्षिप्रे वारे भौमशनी विना । ___ आद्याटनं तपो नांदी हुँचनादि शुभं स्मृतम् ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org