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मुहूर्तराज ]
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(३) अथ आवश्यक मुहूर्तप्रकरणम् प्रारभ्यते
शान्तिकपौष्टिक कृत्य मुहूर्त - (मु.चि.न.प्र. ३४ वाँ)
क्षिप्रधुवान्त्यचरमैत्रमधासु शस्तम् । स्याच्छान्तिकं च सह मंगलपौष्टिकाभ्याम् ॥ खेऽर्के विधौ सुखगते तनु गुरौ नो । मौढ्यादिदुष्टसमये शुभदं निमित्ते ॥
अन्वय - क्षिप्रध्रुवान्त्यचरमैत्रमधासु मंगलपौष्टिकाभ्यां सह शान्तिकं (पौष्टिकं मंगलं शान्तिकं च) स्यात्। अथ लग्नशुद्धिः - तत्र अर्के खे (दशमस्थाने) विधौ सुखगते (चतुर्थस्थे) गुरौ तनुगे (लग्नगते) मौढ्यादिदुष्टसमये निमित्तेऽपि नः (अस्मभ्यम्) शुभदम् भवति।
अर्थ - क्षिप्रसंज्ञक (हस्त, अश्विनी, पुष्य और अभिजित्) ध्रुव संज्ञक (रोहिणी, उ.फा., उ.षा. और उत्तरा भाद्रपद) अन्त्य (रेवती) मैत्र (अनुराधा) और मघा इन नक्षत्रों में पौष्टिक, मांगलिक (विनायक शान्त्यदिक) और शान्तिक (दुष्टफलदमूलनक्षत्रशान्त्यादि) कर्म करने चाहिएं। इन कार्यों में गुरु व शुक्र का अस्त बाल्य वार्धक्य आदि दोष तथा गुरु का सिहंस्थादि दोष और गुर्वादित्य दोष भी नहीं लगता एवं च ये कार्य (पौष्टिक मंगल एव शान्तिक) केत्वादिउत्पातदर्शन में भी हमारे लिए शुभफलदायी ही होते हैं। अक्षरारंभमुहूर्त - (मु.चि.सं.प्र. श्लोक ३७ वाँ)
गणेशविष्णुवाप्रमाः प्रपूज्य पंचमाब्दके । तिथौ शिवार्कदिद्विषट्छरत्रिके रवावुदक् ॥ लघुश्रवोऽनिलान्त्यभादितीशतक्षमित्रभे ।
चरोनसत्तनौ शिशोर्लिपिग्रहः सतां दिने ॥ अन्वय - पंचमाब्दके (प्रारब्धे) गणेशविष्णुवाग्रमाः प्रपूज्य, शिवार्कदिद्विषट्छरत्रिके तिथौ, रवौ उदक् (उत्तरायणगते) लघुभावोऽनिलान्त्यभादितीशतक्षमित्रभे चरोनसत्तनौ सतां दिने शिशो: लिपिग्रहः (कार्यः)
अर्थ - बालक को पाँचवाँ वर्ष लगते ही गणपति, विष्णु, सरस्वती और लक्ष्मी की पूजा करके एकादशी, द्वादशी, दशमी, द्वितीया, षष्ठी, पश्चमी और तृतीया इनमें से किसी तिथि को, रवि के उत्तरायण में, हस्त, अश्विनी, पुष्य, श्रवण, स्वाती, रेवती, पुनर्वसु, आर्द्रा, चित्रा और अनुराधा इन नक्षत्रों में से किसी एक नक्षत्र में सोम, बुध, गुरु और शुक्र में से किसी एक वार को मेष, कर्क, तुला और मकर इन चारों राशियों के लग्नों को छोड़कर शुभस्वामी वाले (वृष, मिथुन, कन्या, धनु, मीन) लग्नों में से किसी एक लग्नकाल में शिशु को अक्षरारम्भ कराना चाहिए।
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