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[ मुहूर्तराज सशल्यः (लौहफलकयुक्तः) अन्यथा पंचातिरिक्ते शेष तु बाणः काष्ठफलकयुक्त एव । लौहशल्यक: विशेषपीडाकरः काष्ठशल्यकस्तु स्वल्पपीडाकारक एवं भवति इति स्पष्टार्थः।
अर्थ - स्पष्ट निरयनांशक सूर्य की संक्रान्ति के युक्तांशों की छ:, तीन, एक, आठ और चार मिलाकर पाँच स्थानों पर उन संख्याओं को रखें। ततः प्रत्येक में नौ का भाग दें। इस प्रकार भाग देने से प्रथम स्थान पर यदि ५ शेष रहें तो रोग नामक बाण, द्वितीय स्थल में ५ शेष रहें तो अग्निनामक बाण, तृतीय स्थल में ५ शेष रहने पर राजबाण, चतुर्थ स्थल में ५ शेष रहने पर चौर बाण और पंचम स्थान में ५ शेष रहने पर मृत्युबाण होता है। ये बाण दो प्रकार के हैं एक काष्ठफलक (काष्ठनिर्मित अग्रभाग वाले)
और दूसरे लौहफलक (लौहनिर्मित अग्रभाग वाले) काष्ठफलक बाण से वैसी पीड़ा नहीं होती, जैसी लौहफलक बाण से होती है। इन दोनों प्रकार के बाणों को ज्ञात करने की विधि यह है कि उन ५ स्थलों में स्थित संख्याओं में सर्वत्र ९ का भाग देने पर जो शेशांक रहे, उन्हें परस्पर जोड़कर पुन: ९ का भाग लगाने पर भी यदि शेशांक ५ ही रहे तो वह बाण लौहशल्यक है और ५ के अतिरिक्त कोई शेषांक रहे तो वह बाण काष्ठशल्यक है।
समयभेद, वारभेद और कार्यभेद से बाणदोष का परिहार-(मु.चि.वि.प्र. श्लो. ७४वाँ)
रात्रौ चौररुजौ, दिवा नरपतिर्वह्नि सदा सन्ध्ययोः , मृत्युच्चाथ शनौ, नृपो विदि मृतिभौमेऽग्निचौरौ रवौ । रोगोऽथ
व्रतगेहगोपनृथसेवायानपाणिग्रहे, वाश्च क्रमतो बुधै रूगनलक्ष्मापाल चौरा मृतिः ॥
अन्वय - रात्रौ चौररुजौ (बाणौ) दिवा नरपतिर्वह्निः (नृपानलबाणौ) सन्ध्ययोः मृत्युः (एतदाख्यो बाण:) इति समयभेदेन परिहारः। अथ शनौ नृपबाणः, विदि (बुधे) मृतिबाणः, भौमेऽग्निचौरबाणौ, रवौ रोगबाणः, इति वारभेदेन बाणपरिहारः। अथ व्रतगेहगोपनृपसेवायान पाणिग्रहे क्रमश: रूगनलक्ष्मापालचौरा मृतिश्च (रोगवह्निराजचौरमृत्यु संज्ञका बाणा: वाः इति कार्यभेदेन वाण परिहारः।
अर्थ - रात्रि में चोर बाण तथा रोगबाण का, दिन में राजबाण और अग्निबाण का, प्रात: और सायं. मृत्युबाण का, शनिवार को राजबाण का, बुधवार को मृत्युबाण का, मंगल को अग्नि और चोर बाण का, रविवार को रोगबाण का, व्रत अर्थात् यज्ञोपवीत में रोगबाण का, घर ढांकने में (छत लगवाने में) अग्निबाण का, राजसेवा में राजबाण का, यात्रा में चोर बाण का और विवाह में मृत्युबाण का त्याग करना चाहिए।
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