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द्वितीय परिहार
पूर्वार्ध व्यापिकी भद्रा दिवा भद्रा कही जाती है और उत्तरार्ध की भद्रा को रात्रि भद्रा कहते हैं। यदि दिवा भद्रा रात्रिकाल में और रात्रि भद्रा दिन में आए उसमें कार्य करने में कोई दोष नहीं प्रत्युत वह भद्रा मंगलकारिणी है।
तृतीय परिहार
सोम, बुध, गुरु अथवा शुक्र के दिन यदि देवगणीय नक्षत्र हो और उस दिन भद्रा हो तो वह भद्रा कल्याणी संज्ञिका है, अर्थात् उस भद्रा का नाम कल्याणी है । उसमें किये गये सभी कार्य सिद्ध होते हैं ।
भद्रा में भी करने योग्य कार्य- वशिष्ठ मत में
वधबंधविषाग्न्यस्त्रच्छेदनोच्चाटनादियत्
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तुरंग महिषोष्ट्रादि कर्म विष्ट्यां तु सिध्यति ॥
अर्थ वध, बन्धन, विषदान, शस्त्रास्त्र कर्म, अग्निदाह एवं उच्चाटनादि कर्म तथा घोड़े, भैंसे, ऊँट आदि को शिक्षा देना, ये कार्य भद्रा में करणीय हैं और सिद्ध ही होते हैं।
आरंभ सिद्धि टीका एवं नारचन्द्र में भद्रा की ग्राह्यग्राह्यता के विषय में
दाने चानशने चैव, घातधाताद्रिकर्मणि । खराश्वप्रसवे श्रेष्ठा भद्राऽन्यत्र न शस्यते ॥
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[ मुहूर्तराज
अर्थ दान में, अनशनव्रत में घातपातादि कर्म में (किसी को मारना अथवा घर आदि का गिराना) गधी घोड़े के प्रसव समय में भद्रा श्रेष्ठ मानी गई है, किन्तु अन्य कार्यों में भद्रा अशुभ है ।
लल्लाचार्य
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शुभाशुभानि कार्याणि यान्यसाध्यानि भूतले । नाडीत्रयमिते पुच्छे भद्रायास्तानि साधयेत् ॥ न कुर्यान्मंगलमं विष्टया जीवितार्थी कदाचन । कुर्तन्नज्ञस्तदाक्षिप्रं नत्सर्वं नाशतां व्रजेत् ॥
अर्थ - जो भी कार्य इस भूतल पर असाध्य माने गये हैं, वे चाहे शुभ हों अथवा अशुभ भद्रा की पुच्छस्थ घटिकाओं में किये जाने पर सिद्ध होते हैं। पूंछ के अतिरिक्त अंग में यदि भद्रावास हो तो किसी भी जीवित रहने की इच्छावाले को किसी प्रकार का भी मांगलिक कार्य नहीं करना चाहिए। यदि कोई अज्ञातवश कार्य करता है तो वह कार्य पूर्णतया नष्ट भ्रष्ट हो जाता है।
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