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मुहूर्तराज ]
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___ अर्थ - सात-सात तिरछी और खड़ी रेखाओं से सप्तशलाका नामक यन्त्र बनाया जाता है, उस पर भी पंचशलाका यन्त्र की भांति ही कृत्तिका से लेकर अभिजित् सहित दक्षिण क्रम से सभी नक्षत्र को लिखें तथा इष्ट दिन को जिस-जिस नक्षत्र पर जो जो ग्रह हो लिखें। इस तरह उन नक्षत्रस्थ ग्रहों की ठीक सीध में जो-जो नक्षत्र होंगे वे उन-उन ग्रहों से विद्ध माने जाएंगे और उन नक्षत्रों की पापग्रह विद्धता एवं सौम्यग्रह विद्धता का विचार करके ही उन नक्षत्रों में कार्य का विधान अथवा निषेध मानना होगा।
यह सप्तशलाकावेध वधूप्रवेश, दान, वरण, विवाह आदि कार्यों के अतिरिक्त कार्यों में माना जाता है किन्तु उक्त कार्यों को करने के लिए यदि वेध ज्ञात करना हो तो पंचशलाका चक्र का ही प्रयोग करना चाहिए। इसकी पुष्टि में श्रीपति लिखते हैं
वधूप्रवेशने दाने वरणे पाणिपीडने ।
वेधः पंचशलाख्योऽन्यत्र सप्तशलाककः ॥ अर्थात् वधू प्रवेशादि कार्यों में पंचशलाकावेध तथा अन्य कार्यों में सप्तशलाका वेध ही मान्य है। और भी
सूरिपयाइसु सप्तशलायं वयगहणादिषु पंचसलायम् ।
कत्ति अमाइसु इविज्जडुचक्कं जो अह ससिणो गहवेधम् ॥ अर्थात् - रूरिपद प्रतिष्ठादि में सप्तशलाका एवं विवाहादि में पंचशलाका वेध मान्य है। इन दोनों प्रकार के चक्रों में कृत्तिका से लेकर अभिजित् समेत समस्त नक्षत्रों को लिखकर किसी भी ग्रह के नक्षत्र से चन्द्र विद्ध होता है या नहीं यह देखा जाता है। अब विवाह के दस दोषों का विवरण लिखा जाता है(१) लत्ता दोष- (मु.चि.वि.प्र. श्लो. ५९वाँ)
ज्ञराहुपूर्णेन्दुसिताः स्वपृष्ठे भं सप्तगोजातिशरैर्मितं हि । (बु.रा.पू.च.शु.)
(, ९, २२, ५) संलत्तयन्तेऽर्कशनीज्यभौमाः सूर्याष्टतर्काग्निमितं पुरस्नात् ॥ अन्वय - ज्ञराहुपूर्णेन्दुसिताः स्वाक्रान्तनक्षत्रात् स्वपृष्ठे (पञ्चशलाकायाँ) सप्तगोजातिशरैर्मितं भं हि (तथा) अर्कशनीज्यभौमाः पुरस्तात् (पंचशलाकायां) सूर्याष्टतर्काग्निमितं भं संलत्तयन्ते।
अर्थ - बुध, राहु, पूर्णचन्द एवं शुक्र अपने महानक्षत्र से पीछे की ओर क्रमश: सातवें, नवें, बाइसवें और ५ वें नक्षत्र पर लत्ताप्रहार करते हैं, जबकि सूर्य, शनि, गुरु और मंगल आगे की ओर क्रमश: १२ वें, ८ वें, ६ ठे और ३ रे नक्षत्र पर लत्ताप्रहार करता है। इसे आगे अंकित सारणी में भली भाँति देखा जा सकता है
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