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मुहूर्तराज ]
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के कारण शुभकार्य स्वयं (दक्षिणायन के कारण ) निषिद्ध ही हैं और यदि मीनार्क की बात करें, तो उस समय यज्ञोपवीत के अतिरिक्त समस्त शुभ कार्यों का निषेध सिद्ध ही है। इसी प्रकार यदि सूर्य की राशि (सिंह) पर स्थित गुरु को गुर्वादित्य कहें तो भी अयुक्त होगा, क्योंकि सिंहस्थ गुरु के कारण उस समय भी सर्वशुभकार्य निषिद्ध ही हैं । इति ।
अत: सर्वमत सम्मत “गुर्वादित्य” पदार्थ की व्याख्या " दैवज्ञमनोहर ” में शौनकमत से युक्तिसंगत प्रतीत होती है-यथा
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अर्थ जब एक ही राशि पर सूर्य एवं गुरु हो ( पर गुरु की बाल्यं वार्धक्य और अस्त अवस्था न हो) उसे ही गुर्वादित्य कहते हैं। इस समय में व्रतबन्ध विवाह आदि शुभ कार्य नहीं करने चाहिए।
एकराशिगतौ सूर्यंजीवौ स्याताम् यदा पुनः । व्रतबंध विवाहादिशुभकर्माखिलं त्यजेत् ॥
गुरु-शुक्र- बाल्य- वार्धक्य - दिन - संख्या (मु.चि.सं.प्र. श्लोक २७वाँ )
पुरः पश्चाद् भृगोर्बाल्यं त्रिदशाहं च वार्धकम् । पक्षं पञ्चदिनं ते द्वे गुरोः पक्षम् उदाहृते ॥
अन्वय - भृगोः (शुक्रस्य) पुरः (पूर्वास्यां दिशि उदितस्य) पश्चाद् वा ( पश्चिमदिशि उदितस्य) त्रिदशाहं (पूर्वस्यामुदितस्य दिनत्रयं पश्चिमदिश्युदितस्य दश दिनानि यावत् बाल्त्वं भवति) च (पुनः) वार्धकम् (भृगोर्वार्धक्यं पूर्वस्यां दिशि अस्तमेष्यतः) पक्षम् पञ्चदशदिनानि (पश्चिमस्यामस्तमेष्यतः) पञ्चदिनं (दिनपंचकम् ) गुरोः ते द्वे (बाल्यवार्धक्ये) पक्षम् (पञ्चदश दिनानि) उदाहृते ( कामं प्रागुदितः प्रत्यगुदितो वा प्रागस्तमेष्यन् प्रत्यगस्तमेष्यन् वा सर्वप्रकारेण)
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अर्थ पूर्वोदित शुक्र का तीन दिनों तक बालत्व रहता है और पश्चिमोदित का १० दिनों तक बालत्व रहता है, जबकि पूर्व दिशा में अस्त होने वाले शुक्र का वृद्धत्व १५ दिनों तक और पश्चिम में अस्त होने वाले शुक्र का वृद्धत्व ५ दिनों तक ।
गुरु का बालत्व और वृद्धस्त दोनों अवस्थाओं में (उदयास्तकालों में) १५ दिनों का माना गया है। चाहे गुरु पूर्वोदित हो अथवा पश्चिमोदित और चाहे पूर्व में अस्त होने वाला हो चाहे पश्चिम में । वक्रातिचारगत गुरु में वर्जनीय कार्य - वात्स्यायन के मत से -
यात्रोवाहौ प्रतिष्ठां च गृहचूडाव्रतादिकम् । वर्जयेद् यत्नतश्चैव जीवे वक्रातिचारगे ॥ कीर्तिभंगः प्रतिष्ठायां चौरभीतिस्तथाध्वनि । तथोवाहे भवेन्मृत्यु व्रते हानिर्भयं गृहे ॥
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