________________ देदीप्यमान एवं गम्भीर निर्दोष वचनरूप महागर्जन से सुस्पष्ट शोभावाले जो पार्श्वनाथ रूप मेघ, तत्त्वरूप जलके समूह से भव्य प्राणी के हृदयरूप पृथ्वी में वर्षाकरके सम्यग्ज्ञानरूप बोधिबीज के अङ्करको मोक्षरूप अमूल्य धान्यके लिये सर्वदा प्रगट करें।" बाल्ये निर्जरनाथसंशयभिदे गीर्वाणशैलः पदाअष्ठस्पर्शनमात्रतोऽजनिमहे येनार्हता चालितः / व्योमव्यापितनुः सुरः शठमतिः कुब्जीकृतो मुष्टिना, स श्रीवीरजिनस्तनोतु सततं कैवल्यशर्माङ्गिनाम् // 7 // " जिस प्रभुने वाल्य अवस्थामें अर्थात् जन्मोत्सव के समयमें देवताओं के स्वामी इन्द्रके सन्देह को मिटाने के लिये पैर के अङ्गठे के स्पर्श मात्रसे मेरु पर्वतको कम्पित किया एवं लड़कपन खेलते समय पराजय करनेकी बुद्धिसे आये हुये दुष्ट बुद्धिवाले आकाश व्यापी अति उच्च शरीर धारण किये हुये देवको मुष्टि मात्र से कुब्ज बना दिया, वह श्री वीर जिनेश्वर भगवान् भव्य प्राणियोंको सर्वदा मोक्ष रूप सुख देवें / " Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org