________________ wwwwwwwmmmmmmmmmmmmmmmmmmarwari मुनि निरंजनविजयसंयोजित भाई भर्तृहरि का रमरण हुआ और विरहव्यथा से बहुत दुःखी होने लगे / तब मंत्री आदि कर्मचारीगणों को भेज कर योगी भर्तृहरि को एक बार सम्मान पूर्वक अवन्तीनगरी में लाये / भर्तृहरिका आगमन ___महाराजाने अत्यन्त मानपूर्वक उनके चरणों में नमस्कार किया। उनका शरीर बहुत ही कृश देखकर मन में सोचा कि अहों तप बहुत ही दुष्कर है / धन्य वे ही हैं जो इस असार संसार को छोड अपने आत्मकल्याण के लिये वनमें जाकर परमात्मा के ध्यान में मग्न हैं / और दूसरों का जीवन तो बकरे के गल-स्तनवत् व्यर्थ जाता है। विक्रमादित्य की विनति इसके बाद महाराजा ने उनके चरणों में गिरकर विनंति की कि-- हे भगवन् ! मुझ पर प्रसन्न होकर इस राज्य कों स्वीकार करो।' तब योगी भर्तृहरिने कहा कि-' हे राजन् ! गन्धन कुलके सर्प समान उत्तम पुरुष राज्यादि लक्ष्मी का त्याग कर फिर उसको ग्रहण करने की-वांछा कभी नहीं करते है। ___ तब फिर राजा बोला कि यदि राज्य नहीं चाहते हैं तो इसी राजमहल में आप सर्वदा रहें / जिससे कि आपके दर्शनों से हम लोग सदा पवित्र होवें / ' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org