________________ 340 विक्रम चरित्र विक्रमचरित्र को अंधा हुआ देखकर सोमदन्त ने. छल से कहा कि 'हे मित्र ! तुमने अकस्मात् यह क्या कर दिया ? मैंने तो हंसी ही की थी। अब हम दोनों यहाँ किस प्रकार रहेंगे ? अवन्तीपुर तो बहुत दूर रह गया। यह सर्प, व्याघ्रादि से व्याप्त भयंकर वन है। अब तुम्हारे नेत्रों के बिना हम दोनों मर जायेंगे। इस प्रकार अनेक कपटयुक्त वचन कहता हुआ सोमदन्त पृथिवी और आकाश को भरने वाला रूदन करने लगा। अहो मित्र कुमार! हास्य करता हुआ मैं तुम्हारे नेत्रों के निकाल लेने से अपार दुःख समुद्र में गिर गया हूँ। तुमने बिना विचार किये ही आवेश में आकर इस प्रकार का कार्य कर लिया। अविचार पूर्वक किया हुआ कार्य मनुष्यों को दुःख देनेवाला होजाता है। सहसा कोई कार्य नहीं करना चाहिये। क्यों कि अविवेक बहुत बडी आपत्ति का स्थान हैं / जो विचार कर के काम करते हैं उनके यहाँ लक्ष्मी भी गुण के लोभ से स्वयं आ जाती है। अपने मित्र को इस प्रकार विलाप करते हुए देखकर कुमारने कहा कि 'हे मित्र ! इसमें किसी का दोष नहीं है। यह सब मेरे अपने कर्मों का ही दोष है / इसलिये तुम दुःख मत करो। कोई भी व्यक्ति अपने एकत्रित किये हुऐ कमों को भोगे बिना मुक्त नहीं होता। जैसे हजारों गायों में वत्स अपनी माता के पास चला जाता है, वैसे ही पूर्वकृत कर्म करने वाले के पीछे पीछे दौड़ता है / प्रमादी व्यक्ति लीलापूर्वक हँसते हुए जो कर्म करते हैं, वे कई जन्मों के बाद भी उसके फलका अनुभव करते हैं तथा शोक पाते हैं / इसलिये हे मित्र ! मेरे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org