Book Title: Maharaj Vikram
Author(s): Shubhshil Gani, Niranjanvijay
Publisher: Nemi Amrut Khanti Niranjan Granthmala

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Page 449
________________ 357 मुनि निरंजनविजयसंयोजित भीम का हाल. उसके स्वस्थ होने पर विक्रमचरित्र ने उसे पूछा कि 'किस स्थान से आया है तथा यह हाल किस तरह हुआ। उत्तर में उसने कहा कि 'मैं वीर नाम के श्रेष्ठी का पुत्र भीम हूँ। मैं अपने पिता की आज्ञा लेकर धन उपार्जन करने के लिये अवन्तीपुर से समुद्रमार्ग से निकला / रास्ते में वाहन के टूट जाने के कारण समुद्र में गिरा / भाग्य संयोग से एक काष्ठ मेरे हाथ में आ गया, जिसे पकड़ कर मैं बडे कष्ट से यहाँ तट तक आ पहुंचा। तब वैद्यराज विक्रमचरित्र ने उसे कहा कि 'हे महाभाग ! तुम कुछ भी दुःख मत करो। यहाँ तुम मेरे पास ही मौज से रहो और अपना समय सुख पूर्वक बिताऔ / मैं शीघ्र ही अवन्तीपुर की और जाने वाला हूँ। उस समय तुम मेरे साथ ही चलना / “कवियों ने सज्जनों के हृदय को नवनीत के समान मृदु कहा है, पर सज्जन व्यक्ति तो दूसरे के शरीर में ताप देखकर ही द्रवित हो जाते हैं / "+ फिर विक्रमचरित्र आदर पूर्वक प्रतिदिन अन्न, पान, वस्त्र आदि से उसका पोषण करने लगा। उपकार करना, प्रिय बोलना, सहज स्नेह, यह सब सज्जनों का स्वभाव ही होता है। चन्द्रमा को किसने शीतल बनाया है। + सजनस्य हृदयं नवनीतं गीतमत्र कविभिर्न तथा यत् / अन्यदेहविलसत्परितापात् सज्जनो द्रवति नो नवनीतम् // 27 // Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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