________________ मुनि निरंजनविजयसंयोजित भी जब राजाने स्तुति के लिये आग्रह किया तो सूरिजी ने अवधूत के ही रूप में खड़े होकर ' बत्तीस द्वात्रिंशिका ' से श्री महावीर स्वामीजी की स्तुति की / स्तुति करते हुए जब इन्होंने देखा कि श्री महावीर नहीं प्रगट हो रहें हैं तो श्री पार्श्वनाथ प्रभु की स्तुति की। कल्याणमंदिरस्तोत्र में "क्रोधस्त्वया" इत्यादि शब्दों से गर्भित काव्य जब इन्हों ने बनाया तब उस समय महाकाल का लिङ्ग धीरे धीरे भेदन होने लगा और लिङ्गमें से धुंआ निकलने लगा, थोड़ी ही देर में भेदित लिङ्गमें से श्री पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा प्रकट होती हुई दिखाई देने लगी। लिङ्गभेदन और श्रीपार्श्वनाथ का प्रगट होना श्री पार्श्वनाथ की प्रकट प्रतिमा को देख कर श्री सिद्धसेनसूरिजीने कहा कि 'यह देव ही मेरी अद्भुत स्तुति को सहन करते हैं।' . राजा ने पूछा कि "हे भगवन् ! आप कौन हैं ? और यह १कोई आचार्य कहते हैं किः. स्वयंभुवं भूतसहस्रनेत्रमनेकमेकाक्षरभावलिङ्गम् / अव्यक्तमव्याहतविश्वलोकमनादिमिथ्यान्तमपुण्यपापम् // 17 // "स्वयंभू, प्राणियों में सहस्र नेत्रबाले, एकाक्षर भावस्वरूप, अव्यक्त, समस्त लोक में अव्याहत, आदि-अन्त रहित, तथा जिन में पुण्य-पाप नहीं है ऐसे. आप को मैं बार बार प्रणाम करता हूँ। - इस प्रकार श्लोक पढ़ते ही देवों से प्रार्थित जिनेश्वर श्री पार्श्वनाथ लिङ्ग को भेदन कर के बहार निकले / Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org