Book Title: Maharaj Vikram
Author(s): Shubhshil Gani, Niranjanvijay
Publisher: Nemi Amrut Khanti Niranjan Granthmala

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Page 494
________________ 398 विक्रम चरित्र -रूपसे तुमको फलित हुआ है / उसके प्रावसे ही तुमको एक सहन हाथी, पांच लक्ष शीघ्र वेग वाले घोड़े, उतने ही रथमें वहने वाले घोड़े, अत्यन्त बलशाली कोटि प्रमाण सेना, कोटि सुवर्ण, दश लाख रत्न, लक्ष मूल्यकी मुक्तायें और लक्ष्मी का तो कोई पार ही नहीं / क्यों कि जिस 'प्राणीको पूर्व जन्म का उपार्जित पुण्यरूप द्रविण परिपूर्ण है उसको संसार की सब सम्पत्ति निश्चय पूर्वक सहजमें प्राप्त होती है।" यह बात सुन कर राजाने कहाकि 'स्वामिन् ! आजसे मैं पूर्व जन्म के समान नित्य भाव पूर्वक तप करूँगा। इसके बाद राजाकी उग्र तपस्या को देखकर सब मनुष्य भक्ति पूर्वक विशेषरूपसे तपस्या करने लगे। क्यों कि: "राजा यदि धर्मिष्ठ हो तो प्रजा भी धर्मिष्ट होती है / राजा यदि पापी हो तो प्रजा भी पापिष्ठ होती है। राजा के समभाव में रहने पर प्रजा भी समभाव में रहा करती है / मतलब कि राजा अगर अच्छे चरित्र वाला है तो प्रजा भी अच्छे चरित्र वाली होती है / " + इसके बाद राजाने अच्छे उत्सव के साथ अपने पुत्र सुन्दर को राज्य देकर आदर पूर्वक सातों क्षेत्रों में अपनी राज्य लक्ष्मीका बहुत दान कर, बाद में दीक्षा लेकर तीत्र तपके द्वारा अपने सारे कर्मको नष्ट करके केवल ज्ञान प्राप्त कर वह तेजःपुंज राजर्षि मोझ को प्राप्त हुए। + राशि धर्मिणि धर्मिष्ठाः पापे पापाः समे समाः / राजानमनुवर्तन्ते यथा राजा तथा प्रजा // 199 // Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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