________________ मुनि निरंजनविजयसंयोजित 355 आभूषण, पान आदि देकर उनका सत्कार किया। यह सब सुन कर राजा कनकसेन अपने मन में विचार करने लगा कि ' मेरा यह जामाता महान् है, एवं पराक्रमी भी है। फिर दूसरे क्षण सोचने लगा कि नहीं, यह इसका पराक्रम नहीं है, किन्तु मेरी कन्या के अच्छे पुण्यों का प्रभाव है। स्वभावतः नीच मनुष्य अच्छे पद को प्राप्त कर गर्व करता है। यह मेरा जामाता भी इसी प्रकार का आडम्बर कर रहा है। मेरी पुत्री के प्रभाव से ही लोगों ने इस को इतना महत्व दिया है। यद्यपि सब शत्रु सामन्त इसके चरणकमलों को प्रणाम करते हैं, तथापि इस वैद्य की नीचता कैसे जायगी / काक कभी हँस की चाल नहीं चल सकता। एवं नीच अपने स्वभाव को नहीं छोड़ सकता।'. विक्रमचरित्र ने सबको सम्मानित किया बाद वे लोग परस्पर कहने लगे कि 'आप श्रेष्ठ व्यक्ति है अतः हम सब आप की आज्ञा को शिरोधार्य करते है।' एसा कह करके पुनः सब अपने अपने स्थान को चले गये। उस वैद्य का इतना पराक्रम देखकर कनकसेन राजा को संशय होने लगा कि मेरा जामाता अच्छे कुल में उत्पन्न हुआ होना चाहिये। क्यों कि आचार से ही कुल जाना जाता है। जैसे शरीर से भोजन जाना जाता है, हर्ष से स्नेह जाना जाता है और भाषा से देश जाना जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org