________________ मुनि निरंजनविजयसंयोजित साथ रहने से यहाँ दोनों की मृत्यु हो जायगी, अतः अब तुम यहासे शीघ्र अपने घर चले जाओ। विक्रमचरित्र के ऐसा कहने पर सोमदन्त ने सोचा कि यह यहाँ रह कर निश्चय ही मर जायगा / मैं यहाँ इस वन में रह कर व्यर्थ ही क्यों प्राणत्याग करूँ / इस प्रकार अपने मन में विचार कर सोमदन्त ने कहा कि 'हे मित्र ! मेरा पैर तो जरा भी नहीं उठता / मन में कुछ, वाणी में कुछ और क्रिया में कुछ, इस प्रकार नीच व्यक्तियों का स्वभाव वेश्याओं के तुल्य ही होता है। सोमदन्त का जाना. तब सरल स्वभाव वाला राजकुमार ने पुनः कहा कि 'हे मित्र ! तुम मेरा कहा क्यों नहीं कर रहे हो ? / उत्तम प्राणियों का स्वभाव तो मन-वचन-शरीर और क्रिया सब में समान ही रहता है / नित्य अपकार करने वाले मनुष्य का भी उत्तम व्यक्ति निरन्तर हित ही करते हैं। यह आत्मीय है तथा यह अन्य है, इस प्रकार का विचार तो क्षुद्रचित्त वालों को ही होता है / उदाराशय व्यक्तियों के लिये तो समस्त पृथिवी ही परिवार है / सज्जन व्यक्तियों का यह स्वभाव ही होता है कि वे सदा उपकार करते हैं, प्रिय बोलते हैं और स्वभाविक स्नेह करते है / क्या चन्द्रमा को किसीने शीतल बनाया है ?' वह दुराशय सोमदन्त विक्रमचरित्र के ऐसा कहने पर उसके चरणों में प्रणाम करके उस स्थान से चल दिया / कहा भी है कि: Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org