________________ विक्रम चरित्र लक्ष्मी रहे अथवा जाय, परन्तु उसका कुछ भी अनिष्ट नहीं होसकता। वैसे पुरुष के सब कार्य सिद्ध हो जाते है। बिना उपकार के किसी को प्रेम नहीं होता। देवता को जो अभीष्ट है, वह देने से ही देवता भी प्रसन्न होकर अभीष्ट वरदान देता है। इसलिये मैं तुम्हारी अटूट भक्ति तथा श्रद्धा से प्रसन्न होकर तुम्हें दोनों विद्याों सहर्ष प्रदान करती हूँ।' देवी से वरदान प्राप्त करने के बाद वह चोर जब जब जिस किसी कार्य को करने की इच्छा करता था. तब तब उसका अभीष्ट कार्य सिद्ध ही हो जाता था। उसके पूर्व जन्म के उपार्जित पुण्य का उदय हो चुका था। जिस प्रकार सिंह को मैं एकाकी हूँ, मैं दुर्बल हूँ, मेरे साथ में परिवार नहीं है, इन सब बातों की चिन्ता नहीं होती। ठीक वैसे ही उस चोर को भी कभी किसी प्रकार की चिन्ता नहीं होती थी। उस के सब कार्य अनायास ही सिद्ध हो जाते थे। क्यों कि क्रिया की सिद्धि आत्म बल से ही हुआ करती है। इस में कोई संदेह नहीं / सूर्य के रथ में एक ही चक्र (पहिया ) है, सातों अश्व सर्पो द्वारा बँधे हैं , रथ का मार्ग भी निरालम्ब आकाश है और रथ चलाने वाला सारथी चरण से रहित याने लंगडा है। इस प्रकार साधन के सबल न रहने पर भी सूर्य अपने आत्म बल से प्रतिदिन अपार आकाश के अन्त तक पहुँचता है। जिस में भयंकर राक्षस निवास करते हैं एसी लंका नगरी को Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org