________________ 256 : विक्रम चरित्र दैत्य आदि कोई भी विघ्न नहीं कर सकेंगे विद्या के साधक लोग पहले अंग रक्षा करना ही श्रेष्ठ समझते हैं। पहले अंग रक्षा करने से निश्चय पूर्वक उनके सब काम सिद्ध हो जाते हैं।' राजा से यह कहकर वह योगीराज शिखाबन्धन करने के लिये तैयार हुआ / फिर राजा के मस्तक पर शिखाबन्ध करके वह दुष्ट योगीराज अपने मन में अत्यन्त प्रसन्न हुआ। राजा विक्रमादित्य ने सोचा यह दुष्ट योगी बहुत बड़ा पाखण्डी है / इसलिये मुझको ऐसा काम करना चाहिये जिससे मेरा संरक्षण होवें। सुवर्ण पुरुष की प्राप्ति ___इधर वह दुष्ट बुद्धि योगी राजा को अग्निकुण्ड में देने का विचार करने लगा, उधर राजा अग्निवैताल के वचन स्मरण करने लगा और सोचने लगा कि यह दुरात्मा योगी अपनी उदरपूर्ती के लीये कितना बड़ा पाप प्रपञ्च कर रहा है / अग्निकुण्ड की प्रदक्षिणा देते हुए योगी राजा की आहुति देने को तैयार हुआ तो राजा विक्रमादित्य ने चालाकीसे उस दुरात्मा योगी को ही अग्निकुण्ड में डाल दिया, जिससे वहाँ तुरत ही सुवर्णमय पुरुष उत्पन्न हुआ / उस सुवर्ण पुरुष का अधिष्ठायक देव तत्काल वहाँ प्रकट हुआ तथा राजा को उसका प्रभाव बतला कर अन्त Oन हो गया / अहिंसा, संयम और तप यह सब उत्कृष्ट मंगल है / जिसका मन सतत धर्म कार्य में लगा रहता है, उसे देवता भी प्रणाम करते हैं / यद्यपि काल अत्यन्त विषम है, राजा लोग भी बहुत विषम होते हैं तथापि जो सतत धर्मपरायण रहता है उसके सब कार्य सिद्ध Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org