________________ विक्रम चरित्र गया, तुरन्त जैसे तैसे भोजन समाप्त करके विक्रमचरित्र उठा, वह अपने मित्र. सोमदन्त के घर पहुंचा / विक्रमचरित्रने अपने मित्र सोमदन्त को सब बातें कही। साथ ही कहा कि 'अब मेरी इच्छा विदेश गमन की है, मैं देखता हूँ कि मेरे भाग्य का फल दूर चला गया है / लक्ष्मी किसी को कुलक्रम से नहीं मिलती / खड्ग के बल से ही लक्ष्मी का भोग करना चाहिये। वीरभोग्या वसुन्धरा अर्थात् यह सारी पृथ्वी वीर भोग्या है। जो सज्जन और दुर्जन की विशेषताओं को जानता है, आपत्ति को सहन कर सकता है, वही पृथ्वी के सुखोंका उपभोग करता है। जो मनुष्य घर से निकल कर अनेक आश्चर्य से भरी हुई इस पृथ्वी का अवलोकन नहीं करता, वह वास्तव में कूप मण्डूक ही है / अत्यन्त आलसी होने के कारण परदेश गमन न करके प्रमाद वश कौए, कापुरुष और मृग अपने देश में ही मरण को प्राप्त करते हैं / इस लिये मैं आज रात्रि में चुपचाप ही यहाँ से चल दूंगा। तुम यहाँ सुखपूर्वक रहना तथा सतत मेरा स्मरण करते रहना / चन्द्र ऊपर रहता है और कुसुम नीचे रहता है फिर भी दूरस्थ होते हुए भी पुष्प विकसित होता है / हजारों वर्ष बाद भी कदापि पुष्प तथा चन्द्र का मिलन नहीं होता है किन्तु इन दोनों में अटूट स्नेह रहता है। परस्पर अवलोकन रूप जल से सिक्त होने के कारण स्नेह का अंकुर नित्य वृद्धि को प्राप्त करता है / परन्तु वियोग जनित दुःख रूप सूर्य किरण के आघातों को प्राप्त कर वह नहीं सूखे-प्रीति न भूले ऐसा करना / ' क्यों कि: Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org