________________ 268 विक्रम चरित्र शत्रु मारा गया तब उस की पत्निया रोने लगी और उनकी आंखों से. इस प्रकार आसू बहने लगे कि जैसे फूटे हुए घड़े से पानी बहता हो।* : इसके बाद श्री सूरिजी पाँचवा श्लोक बोले कि हे राजन् ! सरस्वती तो आप के मुख में है और लक्ष्मी हाथ में है, तो क्या कारण है कि आप की कीर्ति कुद्ध होकर देशान्तर में चली गई ? अर्थात् सरस्वती और लक्ष्मी तो आप को कभी भी नहीं छोड़ती है और आपकी कीर्ति दिगू दिगन्त में व्याप्त है / / इस प्रकार श्लोकों का द्विअर्थी भाव समझ कर राजा अत्यन्त चमत्कृत हुआ तथा आसन से शीघ्र ही उतर कर भक्तिपूर्वक प्रणाम करके बोला कि-हाथी-घोड़े रत्न आदि से संयुक्त यह समृद्धिवान् राज्य मेरेपर कृपा करके, आप इसी समय स्वीकार कीजिये / ' तब श्री सूरिजी बोले कि मैंने अपने माता-पिता के सब धन का पहले से ही त्याग किया है / इस कारण मेरा. मन सर्वदा मिट्टी और सुवर्ण में तुल्य ही है / हमारे जैसे साधुओं का मन शत्रु, मित्र, तृण, स्त्रियों का समूह, सुवर्ण, प्रस्तर, मणि, मृत्तिका, मोक्ष और संसार में समान ही रहता है। मैं सर्वदा भिक्षा से प्राप्त किये हुआ अन्न का ही * आहते तव निःस्वाने स्फुटितं रिपुहृद्घटैः / गलिते तत्प्रियाने राजन् ! चित्रमिदं महत् // 144 // . +सरस्वती स्थिता वक्त्रे, लक्ष्मीः करसरोरुहे / कीर्तिः किं कुपिता राजन् ! येन देशान्तरं गता // 145 // Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org