________________ . विक्रम चरित्र चरणों में धर दिया। आचार्य श्री सिद्धसेनसूरीश्वरजी तो निर्लोभी थे, इसलिये उन्होंने राजा के दिये हुए धन को नहीं लिया / राजा उस धन का दान कर चुका था, इसलिये उस ने भी वह धन वापस नहीं लिया। तब आचार्य श्री के उपदेश से उस धन को जीर्णोध्धार में व्यय किया / राजा के कोषाध्यक्ष ने अपनी बही में लिखा कि दूर से हाथ उठा कर धर्म लाभ कहने पर श्रीसिद्धसेनसूरीश्वरजी को राजा विक्रमादित्य ने कोटि सुवर्ण समपित किया / ओंकार नगर में एकदा श्री सिद्धसेनसूरीश्वरजी ग्राम नगर में विचरते बिचरते ओंकारनगर पधारे वहाँ जिन कथित धर्म का श्रवण कर श्रावक लोगों ने कहा कि " हे महाराज ! श्रावक गण की समृद्धि के अनुसार यहाँ एक जिन मन्दिर की पूर्ण आवश्यकता है; किन्तु ब्राह्मणादि लोग हमें यहाँ महादेव के मन्दिर से ऊँचा जिनमन्दिर बनाने नहीं देते हैं। आप इस के लिए कुछ प्रयत्न करिये जिस से हमारी भावना पूर्ण हो !" श्री सिद्धसेनसूरीश्वरजी ने कहा कि 'आप लोगों की इच्छानुसार राजा की आज्ञा से एक बड़ा जिनमन्दिर बनवाने की आज्ञा मैं दिला दूंगा।' ____ आचार्य श्रीसिद्धसेनसूरीश्वरजी महाराज ओंकारपुर से ग्रामानुग्राम विचरते हुए अनेक गाँवों में उपदेश देते हुए भव्य आत्माओं को सदमार्ग में लगाते हुए क्रम से अवन्तीपुर पधारे / वहाँ राजा विक्रमादित्य से मिलने के लिये गये, द्वार पर पहुँचने पर द्वारपाल को एक लिखित श्लोक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org