________________ मुनि निरंजनविजयसंयोजित ...225 आज्ञा दूं। इसलिये आज मैं स्वयं चोर को पकड़ने के लिये नगर में घूमूंगा। यदि प्रपंच कर के मैं उस चोर को नहीं पकड़ सका, तो तुम लोग अवश्य ही मुझ को चोर का दण्ड देना।" राजा की यह बात सुन कर मंत्री लोग बोले कि 'राजा को चोर का दण्ड आज तक किसी भी शास्त्र में न सुना गया है, न कहीं दीया गया है। दुष्ट को दण्ड देना, सज्जन व्यक्तियों का सत्कार करना, न्याय पूर्वक अपने कोष को बढ़ाना, धनवानों का पक्षपात किये बीना हि अपने राष्ट्र की रक्षा करना राजाओं के लिये ये पाँच यज्ञ के समान कहे गये हैं। दुर्बल, अनाथ, बाल, वृद्ध, तपस्वी तथा अन्याय से जो पीडित हों ऐसे व्यक्तियों के लिये राजा ही आधार है / गुरु की सेवा करना, उनके आदेश का पालन करना, पुरुषों को अपने अधीन रखना, शूरता तथा धर्म कार्य में लगे रहना, ये सब राज्यलक्ष्मी रूपी लता के लिये मेघ समान हैं। इसलिये आपकों चोर का दण्ड नहीं दिया जा सकता / अतः हे राजन् ! यदि आपके चित्त में चोर पकड़ने की प्रबल इच्छा है, तो बिना प्रतिज्ञा के ही इस समय आप उसे पकड़ने के लिए उद्यम कीजिये। साथ में सहायता के लिये योग्य सात-आठ सेवकों को भी ले लीजिये।' मंत्रियों की बात सुन कर राजा बोले कि मैं एकाकी ही चोर को पकडूंगा। यदि तीन दिन के भीतर चोर को नहीं पकड़ सका, तो आठ कोटि द्रव्य धर्म कार्य में व्यय करूँगा।' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org