________________ 232 विक्रम चरित्र का ही फल पाता है / सदबुद्धि से यही सोचना चाहिये / कोई बुरे संकल्प-विकल्प करके अपने मन में दुःखी नहीं होना चाहिये, प्राणियों को सम्पत्ति या विपत्ति में भाग्य ही बराबर उत्सुक रहता है / जो कुछ अदृष्ट में लिखा हुआ है, उसका ही परिणाम सब लोग भोगते हैं। यह समझ कर बुद्धिमान्-लोग विपत्ति में भी अधीर नहीं होते / " राजा अत्यन्त कष्ट से किसी तरह कूप से बाहर निकला / ऊपर आकर अपना अश्व तथा वस्त्र आदि कुछ भी नहीं देखा। तब सोचा कि कूप में पत्थर फेंकने का छल करके वह चोर मेरा अश्व, वस्त्र, खड्ग आदि चीजें लेकर कहीं चला गया / राजा विक्रमादित्य वस्त्र के न रहने से शीत से अत्यन्त पीडित हो रहा था, फिर भी किसी प्रकार पैदल चल कर नगर के द्वार पर पहुँचे / उन्होंने द्वारपाल से कहा कि द्वार खोल दे / मैं विक्रमादित्य हूँ / जब इस प्रकार बार बार राजा विक्रमादित्य ने कहा तब वह द्वारपाल अत्यन्त क्रुद्ध होकर बोला- रे दुष्ट! दुराचारी अपने को राजा कह कर तू छल से इस समय मेरे सामने नगर में प्रवेश करना चाहता है, यह नहीं होगा।' द्वारपाल की बात सुन कर राजा पुनः बोलाः-" हे द्वारपाल ! मैं चोर नहीं हूँ / किन्तु इस नगर का स्वामी विक्रमादित्य हूँ, चोर ने छल करके मेरी ऐसी दुर्दशा की है।" यह बात सुन कर और अधिक क्रुद्ध हो कर द्वारपाल बोला " रे दुष्ट ! इस प्रकार बार बार मत बोल / अन्यथा मैं अभी बड़े पत्थर से तेरा मस्तक तोड़ दूंगा / राजा विक्रमादित्य तो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org