________________ विक्रम चरित्र मृगली-विभावसु देवकी पत्नी .. इस तरह आर्त ध्यान में अपूर्ण इच्छा से मरने के का ण मलयाचल पर्वत पर तृतीय भव में मैं मृगी हुइ / वहाँ पर एक दुष्टाशय मृग मेरा पति हुआ। उसे मैं जो कुछ कहती, वह उसे स्वीकार नहीं करता था। संसार में सब प्राणियों को अपने अपने भाग्य के अनुसार ही सब कुछ मिलता है, ऐसा सोच कर ही मैं अपना जीवन दुःख में बिताती थी। __ एक दिन जंगल में चरते हुए मैंने एक महा तपस्वी शान्त मुनि को देखा, और विचार करते करते मुझे जाति स्मरण 'पूर्वभव का ज्ञान उत्पन्न हुआ। अतः मैं हमेशा उनका दर्शन व वन्दन करने लगी। एक दिन मैंने अपने पति से कहा कि इस जंगल में एक शान्त मुनि महात्मा रहते हैं। उन के दर्शन करने से पूर्व भव के पाप नष्ट हो जाते है / कहा है:-- ... " साधुओं का दर्शन उत्तम पुण्य कारक है, क्यों कि साधु तीर्थ समान ही हैं, अथवा तीर्थ से भः साधु समागम उत्तम है, क्यों की तीर्थ यात्रा का फल तो देर से मिलता है, पर साधु महात्मा के दर्शन व समागम का फल तत्काल प्राप्त होता है / "+ +साधूनां दर्शनं श्रेष्ठं (पुण्यं ) तीर्थभूता हि साधवः / तीर्थ फलति कालेन, सद्यः साधुसमागमः // 176 // Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org