________________ विक्रम चरित्र एक बार मेरे पति जितशत्रु राजा अपनी प्रिया कलावती के साथ अष्टापद महातीर्थ की यात्रा के लिये रवाना हुए। तब मैंने भी पति से अर्ज की कि 'श्रीअष्टापदजी महातीर्थ की यात्रा करने की मुझे भी बहुत दिनों से अभिलाषा है अतः मुझे भी साथ ले चल कर मेरी भी अभिलाषा पूर्ण कीजिये।' क्यों कि शास्त्र में कहा है: ___"शुभ और अशुभ कार्य खुद करने वाले अथवा दूसरे से कराने वाले और हर्ष पूर्वक् अनुमोदन करने वाले एवं उन शुभ-अशुभ कार्यों में सहायता करने वाले इन सभी को समान ही पुण्य एवं पाप होता है ऐसा ज्ञानियों ने कहा है / "x इसी प्रकार मैंने अपने पति से वारंवार अष्टापद महातीर्थ की यात्रा में साथ ले जाने के लिए प्रार्थना की परंतु उसने मेरा कटु वचन से तिरस्कार कर के नव परिणीता कलावती के साथ तीर्थयात्रा कर के फिर घर लौटे / कुछ काल पश्चात् मेरे पति ने कलावती को नवीन सुन्दर सुन्दर आभूषण बनवा कर दिये, फिर मैंने यह देखकर उन से कहा कि मुझे भी नवीन आभूषण बनवा कर दीजिए / तब उन्होनें क्रोधातुर हो कर कहा कि यदि तुम अपना हित चाहती हो तो ऐसी इच्छा कदापि मत करो। इस तरह कलावती में आसक्त राजा ने उस भवमें मेरी एक भी अभिलाषा पूर्ण नहीं की। जैसे xकर्तुः स्वयं कारयितुः परेण, तुष्टेन भावेन तथाऽनुमन्तुः। साहाय्यकर्तुश्च शुभाऽशुभेषु, तुल्यं फलं तत्त्वविदो वदन्ति // Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org