________________ विक्रम चरित्र प्राणी को अपना सामर्थ्य या प्रयत्न काम देता है / + एक मत्स्य किसी धीवर के हाथ में पड़ गया / वहाँ से छूटा, तो जाल में फँस गया / किसी प्रकार उस से भी निकला तो अन्त में उसको एक बक निगल खा गया / भाग्य के प्रतिकूल रहने से इसी प्रकार प्राणी लाख उद्यम करके भी अन्त में नष्ट ही होता है। दूसरे की स्त्री को हरण करने वाला तथा चोरी इत्यादि महापाप करने वाला वह चोर अपने दुष्कर्म का फल प्राप्त कर अनन्त दुःख वाले नरक को प्राप्त हुआ पूर्वोपार्जित पुण्य के क्षय होने पर देवी का वरदान या अपना सामर्थ्य कुछ भी उसके काम न आया / इसलिये किसी की चोरी आदि दुष्कर्म नहीं करना चाहिये / चोरी रूपी पाप के वृक्ष का फल इस संसार में वध, बन्धन आदि मिलता है और परलोक में नरक का दुःसह कष्ट भोगना पड़ता है / जो मनुष्य चोरी करता है, उसे बाण से बिंधे हुए व्यक्ति की तरह दिन में या रात्रि में, सुप्त हो अथवा जाग्रत, किसी भी समय में सुख नहीं मिलता उसका विचार शील मित्र, पुत्र, स्त्री, पिता, भाई आदि कोई भी प्रेम नहीं रखता है। म्लेच्छ के समान ही सब कोई उस का बहिष्कार कर देते है। +छित्त्वा पाशमपास्य कूटरचनां, भक्त्वा बलाद् वागुराम् / पर्यन्ताग्निशिखाकलापजटिलाद् निर्गत्य दूरं वनाद् // व्याधानां शरगोचरादतिजवेनोप्लुत्य धावन् मृगः / कूपान्तः पतितः करोति विधुरे किं वा विधौ पौरुषम् // 257 // Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org