________________ 169 मुनि निरंजनविजयसंयोजित ____ " यात्रा के समय में नहीं जाओ' ऐसा कहने से अमंगल होता है, ' जाओ ' यह स्नेहहीन वचन है, ' रह जाओ' यह शब्द स्वामित्व का द्योतक है, जैसी 'इच्छा हो वैसा . करो' ऐसा कहने से उदासीनता लक्षित होती है / इसलिये मैं अभी किस शब्द से उचित उत्तर दूं यह मेरी समझ में नहीं आता। अन्ततः मैं यही कहती हूँ कि जब तक तुम्हारा पुनः दर्शन हो, तब तक मेरा स्मरण करते रहना / मार्ग में सतत कल्याण हो और शीघ्र ही तुम लौट कर वापस चले आओ।"x 'हे पुत्र ! तुम अपने कार्य का साधन करो। तथा समय समय पर मेरा स्मरण करना।' क्योंकि " माता-पिता के समान तीनों लोक में कोई भी दूसरा तीर्थ नहीं है। कल्याण और सुख का देने वाला यह मनुष्य का शरीर माता-पिता से ही प्राप्त होता है। अपनी माता की यह बात सुन कर देवकुमार बोला कि" हे मात ! तुम अपने मन में किसी प्रकार का दुःख मत करना। मैं xमा गा इत्यपमंगलं, व्रज, इति स्नेहेन हीनं वचः / तिष्टेति प्रभुता, यथारुचि कुरुष्वेत्यप्युदासीनता॥ किं ते साम्प्रतमाचराम उचितं तत्सोपचारं वचः / स्मर्तव्या वयमेव पुत्र ! भवता यावत् पुनदर्शनम् // 56 / / +मातृ-पितृसमं तीर्थं विद्यते न जगत्त्रये / यतः प्राप्नोति सुलभो नृभवः शिवशर्मदः // 58 // Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org