________________ मुनि निरंजनविजयसंयोजित 131 पुत्र हो। तुम्हारे चले जाने से मेरे हृदय में अत्यन्त दुःख होगा।' इस प्रकार बहुत समझाने पर भी जब उस ने अपना आग्रह नहीं छोड़ा, तो लाचार हो कर गुणसार के पिताने उस को धन उपार्जन करने के लिये जाने की अनुमति दे दी। गुणसार का विदेश गमन इस के बाद गुणसार ने बहुत सा द्रव्य तथा बेचने के लिये कई प्रकार की वस्तुओं लेकर व्यापार करने के लिये शुभ दिन देख कर अपने पिताको सहर्ष प्रणाम कर तथा उनसे आज्ञा लेकर दूर देशान्तर के लिये प्रस्थान किया। इधर धनेश्वर के घर के समीप एक बहुत बड़ा वृक्ष था, जिस पर एक पिशाच निवास करता था। वह गुणसार की स्त्री रूपवती की सुन्दरता को देखकर उस पर अत्यन्त मोहित हो गया / क्योंकि कहा भी है:___ “क्या स्वर्ग में कमल के समान-विशाल नेत्र वाली सुन्दरी स्त्री नहीं है ? फिर भी देवताओं के राजा इन्द्र ने परम तपम्बिनी अहिल्या का सतीत्व नष्ट कर दिया / इस से तो यही सिद्ध होता है कि हृदय रूप तृण के घर में कामदेव रूप अग्नि जब प्रज्वलित होती है, तब पण्डित को भी उचित अनुचित का ज्ञान नहीं रहता है / "+ ... +किमु कुवलयनेत्राः सन्ति नो नाकनार्यः, . त्रिदशपतिरहल्यां तापसी यत्सिषेवे / हृदयतृणकुटीरे दीप्यमाने स्मराना वुचितमनुचितं वा वेत्ति कः पण्डितोऽपि // 101 // Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org