________________ मुनि निरंजनविजयसंयोजित 147 इधर चोर अपने मनमें विचार कर रहा था कि क्या मुनि का वाक्य असत्य ठहरा, जो विक्रमादित्य आज नहीं मिला। तब तक विक्रमादित्य उस चोर से पुनः मिला और बोला कि 'हे मामा ! मैं तुम्हारे कान्दविकी के बहिन का लड़का हूँ। माता से अपमानित होने के कारण मैं रोष से इस नगर में भ्रमण कर रहा हूँ। मेरा नाम विक्रम है। तब चोर बोला कि हे-' भागिनेय ! इस समय तुम मेरे साथ साथ चलो। मैं तुम को अच्छा अन्नपान देकर सुखी बना दूंगा / माता पिता तब तक ही अपने लड़के और लड़कियों का आदर करते हैं, जब तक वह उनका थोड़ा वचन भी मानता है / यदि पुत्र अपने माता पिता की अभिलाषा को पूर्ण नहीं करते हैं, तो वे उसको कष्ट देते हैं। प्राणियों के लिये तब तक ही माता पिता, परिवार बान्धव ये सब अपने रहते हैं, जब तक उन में परम्पर प्रेम रहता है। कोई दूसरा मुझ को सुख या दुःख दे रहा है, ऐसा नहीं समझना चाहिये, क्योंकि सुख या दुःख का देने वाला कोई दूसरा नहीं है / मैं करता हूँ ऐसा समझना भी व्यर्थ का अभिमान है। क्योंकि सब अपने भाग्य के अनुसार ही होता है तथा उसी के अनुसार फल भी पाता है। इसलिये तुम अपने मन में किसी प्रकार की चिन्ता मत करो।' फिर राजा भी अपने मन में सोचने लगा कि यह बलवान् चोर देवी का वरदान प्राप्त कर के छल से समस्त नगर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org