________________ मुनि निरंजनविजयसंयोजित से यह ही चोर है ' ऐसा समझा। क्योंकि किसी का स्वरूप देखने से ही उस के कुल का पता लग जाता है, भाषण से देश जाना जाता है तथा व्यग्रता के तारतम्य से स्नेह का ज्ञान होता है और शरीर के देखने से भोजन के विषय में जाना जाता है। . . ... . उसे चोर समझ कर वह राजा उस चोर के विषय में अच्छी तरह से जानने के लिये छल से बोला कि- मैं तैलंग देश से बहुत कष्ट पाता हुआ इस देश में घूमता हुआ आया हूँ और भूख से व्याकुल हो कर विश्राम करने के लिये यहाँ पड़ा हूँ।" ऐसा सुन कर उस चोर ने अपने मन में विचार किया कि -'इस परदेशी को मैं अपना मित्र बनाकर अपना अभिलाषित काम करूँ।' कहा भी है: " एकान्त में एकाकी होकर ध्यान, दो मिलकर पढ़ना, तीन व्यक्तियों का मिलकर गाना, चार व्यक्तियों से मार्ग में गमन करना, पाँच या सात मिलकर के कृषि खेती ( कास्तकारी ) तथा बहुत मनुष्यों को मिलाकर के युद्ध किया जा सकता है ! " x * एको ध्यानमुभौ पाठं त्रिभितिं चतुः पथम् / पञ्च सप्त कृर्षि कुर्यात् संग्राम बहुभिर्जनैः // 182 // Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org