________________ मुनि निरंजनविजयसंयोजित किसी रोग से मर गई'। उपर्युक्त शोककारक वचन सुनकर मातृभक्त विक्रमने शिर पर हाथ रखा और उसके मुखसे हा दैव ! हा दैव ! यह दीन वचन अकस्मात् निकल पडे / रत्नप्राप्ति व रत्नको फेंकना इतने में ही कुठार के आघात की जगह से एक सवालक्ष मूल्य का रत्न निकल पडा और मशि के किरण से वहाँ सर्वत्र प्रकाश हो गया / उस रत्न को लेकर भट्टमात्रने अवधूत विक्रम को दिया और कहा कि तुम्हारी माता जीवित है और कुशलता पूर्वक है, अतः शोक मत करो / इस प्रकार माता की कुशलता सुनकर जैसे मेघ गर्जन से मयूर आनन्दित होता है, वैसे ही विक्रम आनन्दित हुए / कहा भी है दयैव धर्मेषु गुणेषु दानं, प्रायेण चान्नं प्रथितप्रियेषु / मेघः पृथिव्यामुपकारकेषु, तीर्थेषु माता तु मता नितान्तम् // 102 // अर्थात् इस संसार में धर्म में दया, श्रेष्ठ गुणों में दान, प्रिय वस्तु में अन्न, उपकारी में मेघ और सर्व तीर्थो में माता ये सब अत्यन्त श्रेष्ठ माने गये हैं। तीर्थे धर्म च देवे च, विवादो विदुषां बहुः। मातुश्चरणचर्चा तु, सर्वदर्शनसंमता // 103 / / Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org