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तक व्यक्ति की सूचनाएं देते रहते हैं और यह एक शृंखलाबद्ध “मोलिक्यूल" का प्रवाह है। परम्परा रक्ताश्रित और विशिष्ट होती है। किसी भी व्यक्ति का विकास अनेक स्तरों पर क्रमशः होता है, जिनमें पर्यावरण के साथ “एमीनोएसिड" का भी हाथ रहता है। "क्रोमोसोम" ही अनुवांशिकता का निर्माण करते हैं। इस प्रकार “जीन" ही आनुवंशी परम्परा का मूल तत्व व सूत्र है।
आधुनिक विज्ञान के संबंध में कुछ नए तथ्य आज भी हमारे सामने हैं। विद्वानों की धारणा है कि इलोक्ट्रोन, प्रोटोन, न्यूट्रोन, पोजीट्रोन आदि जैन धर्म के "पुदगल-परमाणु" के ही रूप है। वैज्ञानिक यह भी मानते हैं कि परानीहारिका (पैरागेलेक्सी) में पहले द्रव्य और प्रतिद्रव्य विद्यमान थे। आज विज्ञान भी यह स्वीकार करता है कि विश्व में किसी भी पदार्थ की विनष्टि नहीं होती। उसका अलक्ष्य पर निरन्तर रूपान्तरण होता रहता है। यह भी सिद्ध हो चुका है कि प्रत्येक कार्य की प्रतिक्रिया होती है। इस प्रकार कर्म की भी प्रतिक्रिया होती है और वह अनवरत चलती रहती है। इस संबंध में अधुनातन अनुसंधान “सुपर स्ट्रिग्स" का भी उल्लेख करना उचित है। वैज्ञानिकों ने यह स्वीकार किया है कि समस्त सृष्टि सूक्ष्मातिसूक्ष्म "कण" से निर्मित है, जो अणु का एक खरबांश है, उससे भी कम। यह वैज्ञानिक तथ्य जैन सिद्धान्त के कर्म-वर्गणा को और पुष्ट करता है। इस सम्बन्ध में किरियन फोटोग्राफी का भी उल्लेख उचित है, जिसने यह सिद्ध कर दिया कि हमारे शुद्ध आचरण में हमारी प्राणधारा ऋजु होती है और कषाय युक्त होने पर असंतुलित। इस प्रकार हमारे व्यवहार का प्रभाव वातावरण पर तो पड़ता ही है, पर पौधों और लताओं पर भी होता है। यदि हम क्रोध व रौद्र भाव से पौधों को देखेंगे तो वे मुर्दा जाएंगे इसके विपरीत हमारे सौम्य व स्नेहिल व्यवहार से वे अधिक विकसित होंगे। ऐसे और भी उदाहरण प्राप्त हैं। ... अब हमें आधुनिक पाश्चात्य मनोविज्ञान पर भी दृष्टिपात करना चाहिए। कर्म के लिए अंग्रेजी में “ऐक्सन" और "बिहेवियर" दोनों का प्रयोग मिलता है। एफ. एस. ग्रैजर के मतानुसार कर्म व्यक्ति की भावना पर निर्भर करता है। जब विचारों का वेग भावात्मक और क्रियात्मक होता है, तभी कर्म बनता है। मैक्डूगल के अनुसार मनुष्य का आचरण विविध रूपों में समाज-विज्ञान से संबंध रखता है और वह व्यवहार के रूप में व्यक्त होता है। हिंग्गिंसन कहता है कि मनुष्य का कर्म सोद्देश्य होता है। वह प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से सुख एवं संतोष प्राप्त करना चाहता है। डूमण्ड ने बताया है कि मनुष्य अपने स्वभाव और आचरण (कर्म) से ही बाह्य जगत को प्रभावित करता है। मनुष्य के व्यक्तित्व के मूल्याकंन में कर्म ही हमारे सम्मुख रहते हैं। गिलबर्ट रिले के अनुसार कर्म मनुष्य के स्वभाव से निष्पन्न होता है। मनोविज्ञान के अनुसार कर्म के दो वर्ग हैं-ऐच्छिक व अनैच्छिक। (संदर्भ -साइकोलोजी : एफ.ए.प्रैगर पृ. २१६; सोशल साइकोलोजी-विलियम मैक्डूगल पृ. ३०४, जी.डी.
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